18 June, 2025

कविता | इतराता है प्रेम | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

इतराता है प्रेम
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

होती है अनेक
औचित्यहीन चेष्टाएं
कभी चिटकनी खोलना 
कभी टिक जाना 
दरवाजे से
और फिर अचानक 
दरवाजा लगाकर 
चिटकनी चढ़ा देना

यूं ही 
महसूस करना 
कि कोई सामने है
बालों को संवारना 
होठों पर 
मुस्कुराहट की 
रेखा का दौड़ जाना

यही तो है 
जागते स्वप्न का है 
लालित्य
जो अदृश्य को भी 
दृश्य में ढाल कर
खेलता है 
चेतना के अवचेतन से

और ठीक उसी समय 
इतराता है प्रेम 
अपनी अनंत, असीम
सम्मोहन शक्ति पर।      
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17 June, 2025

कविता | भोर का प्रेम | (सुश्री) शरद सिंह

भोर का प्रेम 
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

पक्षियों के कलरव से
जागती भोर
तोड़ती है
सूरज की अंगड़ाइयों को
गति पकड़ने लगती है
हवा भी

घरों के भीतर
खनखना उठते हैं बरतन
जल उठते हैं चूल्हे
पतीलियों में उबलती 
शक्कर, चायपत्ती
दूध और इलायची के संग
चाय छनती है
भाप उठती 
हो जाता है शुरू
कोलाहल

ठीक उसी समय
आता है प्रेम चाय में 
घुलकर
जहां मुस्कुरा कर 
परस्पर
एक-दूसरे को
थमाया जाता है प्याला
पारिवारिक भीड़ के बीच
प्याले को थामती हुई उंगलियां
चुपके से दबा देती हैं 
दूसरे की उंगलियों को
कौंध जाती है बिजली सी
दोनों की देह में
प्रेम मुस्कुराता है 
शालीनता से

किसी एक घर में
प्रेम और अधिक 
मुखर हो जाता है
और चाय से भी पहले 
शयनकक्ष में प्रवेश कर 
बालों को सहलाता है
माथे पर 
कुनकुनी धूप के 
एक गहरे चुंबन के साथ
जागता है

सो, भोर होते ही
जीवन में 
समाने लगता है प्रेम 
अपनी पूरी 
विविधता के साथ

बस, कोई उसे 
महसूस कर पाता है 
और कोई नहीं।
      - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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15 June, 2025

कविता | प्रेम का धर्म | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

प्रेम का धर्म
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

किसने कहा कि 
प्रेम / नास्तिक है

निराकार और साकार 
दोनों है प्रेम
लौकिक और अलौकिक
दोनों है प्रेम

प्रेम जीव है 
और आत्मा भी 
प्रेम जब गाढ़ा हो जाए
तो परमात्मा भी

प्रेम नैमिषारण्य का 
चक्र कुंड है
महेश्वर  का 
दीपस्तम्भ भी

प्रेम कृष्ण की 
बांसुरी है
तो राधा का 
विश्वास भी

प्रेम अनिल है 
अनल है, अनंत है
रीझी हुई पृथ्वी पर
स्वस्ति चिन्ह है

जो भी पवित्र है 
वह आस्तिक है
और प्रेम से बढ़कर 
पवित्र और ब्रह्म 
कुछ भी नहीं

प्रेम सभी धर्मों में 
समाकर भी धर्म से परे
है एक मौलिक धर्म 
जो बना देता है 
घोर आस्तिक

इसीलिए
प्रेम में डूबा व्यक्ति 
निबाहता है 
हर समय 
प्रेम-धर्म
अविरल, अनवरत
अनंत की अभिलाषा में।        
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वे थे मेरे पिता, याद आती है उनकी - डॉ (सुश्री) शरद सिंह | Father's Day 2025

बचपन में ही छूट गई थी उंगली जिनकी 
वे  थे  मेरे  पिता, याद   आती है उनकी 
धुंधली-सी स्मृतियां ही हैं अब तो बाकी 
सदा कमी पाई  अपने जीवन में उनकी
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

#FathersDay2025 ... 
जब मैं मात्र 2 वर्ष की थी, तब मेरे पिताजी श्री रामधारी सिंह जी का निधन हो गया था... मुझे उनके स्पर्श का... उनके स्नेह  का स्मरण भी नहीं है... बस, मां बताया करती थीं कि वे हम दोनों बहनों को बहुत प्यार करते थे....

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14 June, 2025

कविता | प्रेम होने दो अभिव्यक्त | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

प्रेमकविता :
प्रेम होने दो अभिव्यक्त 
       - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

उसने कहा
उससे -
मुझे मत बताओ
कि
तुम्हें प्रेम है मुझसे
क्योंकि प्रेम
सदियों से
दुहराए जाते 
शब्दों से नहीं,
वह तो
व्यक्त होता है
अनुभूति की
राग-रागिनियों से
लय, माधुर्य
आरोह-अवरोह से,
प्रेम होने दो अभिव्यक्त 
भंगिमाओं के 
अलौकिक
पवित्र 
संगीत से
होने दो ध्वनित 
सांसों के तार-वाद्यों को
किसी कंदरा से लौटते
स्वर समूह की तरह
शब्दों के बिना
शब्दशः।     
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13 June, 2025

कविता | प्रेम में मगन धरती | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

प्रेम में मगन धरती 
     - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

शब्द खो देते हैं
जब अपनी ध्वनियां
ठीक वहीं से 
शुरु होता है
अंतर्मन का कोलाहल
और गूंज उठता है
प्रेम का अनहद नाद
बहने लगता है
अनुभूतियों का लावा
धमनियों में
रक्त की तरह,
हलचल कर उठती हैं
धड़कनों की
टेक्टोनिक प्लेट्स
भूकंप आता है
हृदय की गहराइयों में
लेकिन
दरार आती है
परदृष्टियों की 
उथली सतह पर
किंतु प्रेम में मगन धरती 
डोलती रहती है 
अपनी ही धुन में।
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12 June, 2025

कविता | प्रेमाभिव्यक्ति | डॉ (सुश्री) शरद सिंह


प्रेमाभिव्यक्ति
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

चौंकता है मन
ठिठकता है
हो जाता है कभी
अवाक भी
लगते हैं शब्द भी
निर्लज्ज
मानो 
बिना समझे भावना को
उंडेल दिया हो
किसी ने
अपनी अभिलाषा का
बेमेल रंग

कभी-कभी
शब्द भी 
हल्का कर देते हैं
प्रेम को
बना देते हैं सतही
इसीलिए
मौन ही 
उचित अभिव्यक्ति 
होती है
प्रेम की
कभी-कभी।        
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11 June, 2025

कविता | प्रेम एकाकी मन के लिए | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

प्रेम एकाकी मन के लिए
 - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

चिलचिलाती धूप में
सूखते गले को
मिल जाए जैसे
एक मुट्ठी छांह
और
एक घूंट पानी

बारिश की बाढ़
और 
गहरी सीलन में
चमके धूप की
कुनकुनी किरण

कड़कड़ाती ठंड में
फुटपाथ पर 
कांपती, ठिठुरती
देह को
कोई ओढ़ा दे कंबल

सूनी रसोई औ
छूंछे डिब्बों में
मिल जाएं
कटोरी भर आटा

तो फिर से
जाग उठता है 
विश्वास 
जीवन के प्रति
ठीक ऐसा ही तो होता है
प्रेम
एकाकी मन के लिए।     
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10 June, 2025

कविता | सिसकता है प्रेम | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

सिसकता है प्रेम
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

पार्क के 
सूने कोने में
बैठे-बैठे
बेंच से झुक कर
उसने उठाया
एक सूखा पत्ता
अनायास
निरुद्देश्य
बड़ी बारीकी से
देखा उसे
उलट-पलट कर
कौंधा-
यह भी किसी डाल पर
रहा होगा
किसी का प्रेम

हाथ कांपा 
गिर गया पत्ता
उंगलियों से सरकता हुआ

कहते हैं प्रेम में
हरियाता हैं जीवन
एक पत्ते की तरह
मुरझाता है
एक पत्ते की तरह

डाल पर होने की खुशी 
और बिछड़ने का ग़म
वही जानता है 
जो छूट जाता है, 
वह नहीं जो छोड़ जाता है

क्या पता है? 
एक पार्क के सूने कोने में 
बेरंग पुरानी बेंच
पर बैठा प्रेम सिसकता है 
आज भी
शायद इसीलिए
सबसे ज्यादा पत्ते
गिरते हैं सूख कर
उसी कोने में।
        - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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09 June, 2025

कविता | एक प्रेम कविता | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

एक प्रेम कविता 
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

अच्छे लगते हैं 
मावसी अंधेरे में 
आसमान में टिमटिमाते तारे
जैसी काले क़ाग़ज पर 
चमकीली-सफेद स्याही से 
लिख दी गई हो 
एक प्रेम कविता
जिसे पढ़ नहीं सकते
न चांद, न सूरज
न धरती पर
वृक्ष की छांह में रेंगते
निशाचर कीड़े
न गहरी नींद मेरी में सोते
संदेहाकुल लोग
इसे पढ़ सकते हैं सिर्फ़ वे ही
जो जागते हैं
अपनी-अपनी छत पर 
या खिड़की से झांकते 
या फिर 
दहलान में टहलते
प्रेम में डूबे हुए 
पर अकेले 
किसी की स्मृतियों को 
अपने सीने से लगाए
हां, पढ़ सकते हैं वे ही।          
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07 June, 2025

कविता | प्रेम का पुष्प | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

प्रेम का पुष्प
     - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

कभी देखा है
हथेली पर खिला हुआ 
ताज़ा, सुगंधित पुष्प?
नहीं न!
सदा नहीं भीगती 
हथेली
सदा नहीं खिलता 
पुष्प
किसी-किसी की 
हथेली
रह जाती है 
पुष्प बिना
जिसमें होती ही नहीं
प्रेम की लकीर
यद्यपि
प्रेम को लकीर नहीं
भावना चाहिए
हथेली पर पुष्प 
खिलाने के लिए।        
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06 June, 2025

कविता | अर्द्धरात्रि का प्रेम | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

अर्द्ध रात्रि का प्रेम
    - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

अर्द्ध रात्रि का 
एकांगी प्रेम
ठीक वैसा ही
होता है जैसे 
अर्द्ध रात्रि का चंद्रमा
किसी फकीर की तरह
चलता चला जाता है 
अपनी ही राह पर
अपनी ही धुन में
चाहे उसमें कोई 
कलंक देखे या 
देखे चांदी-सी चमक
चाहे उसमें कोई 
गोल रोटी देखे या देखे 
चरखा चलाती औरत
पर खुद चंद्रमा
कुछ नहीं देखता 
कुछ नहीं सोचता
चलता रहता है 
सम्मोहित-सा
अपने ही 
खण्डित स्वप्न के पीछे
भोर तक।
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04 June, 2025

कविता | विशुद्ध प्रेम | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

विशुद्ध प्रेम
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

भावनाओं की नौका
पर सवार
विश्वास की पतवार
को थाम कर
विरोध की असंख्य 
जलधाराओं को
पार कर
निज को छोड़ कर पीछे
समर्पण और
परवाह की पूंजी लिए
जहां पहुंचता है 
एक केवट-हृदय
वही तो तट है
विशुद्ध प्रेम का।
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03 June, 2025

कविता | अंधेरा प्रेम का | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

अंधेरा प्रेम का
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

अंधेरा स्पर्श को जीता है
दृश्य को नहीं
दृश्य का पहाड़ा
पढ़ती हुई दुनिया
उलझी रहती है विवादों में
आंख मूंद कर
हासिल किए गए
अंधेरे से
जाग उठती है कुण्डलिनी
बिना किसी बीजमंत्र के
मिट जाते हैं सारे 
मानसिक क्लेश 
और विवाद
यदि वह 
पवित्र अंधेरा हो
योग का, ध्यान का
या प्रेम का
एक अलौकिक स्पर्श की भांति।
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02 June, 2025

कविता | प्रेम ने छुआ | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

प्रेम ने छुआ 
   - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

दृष्टि बदल जाए
अर्थात / दृष्टिकोण ही
सब कुछ देखने का
निविड़ अंधकार में
दिखे दीपक की लौ
जेठ की तपती दुपहरी में
छाया मिले
सजल बादल की
और
बिना बारिश
उगे इन्द्रधनुष
ठिठुरते जाड़े में
सुलगे अदृश्य अलाव
बुरा न लगे
किसी भी बात का
तो समझो कि
प्रेम ने छुआ है
हौले से
कांधे को।
यही तो लगा होगा
शकुंतला और दुष्यंत
सस्सी और पुन्नू को भी।           
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01 June, 2025

कविता | बिना प्रेम | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

बिना प्रेम
   - डॉ (सुश्री) शरद सिंह   

अगले पल के 
भविष्य को भी
जान लेना चाहता
हर कोई
क्या होगा
परीक्षा का रिजल्ट
पैकेज मिलेगा या नहीं
घर बसेगा या नहीं
मकान बनेगा या नहीं
पर 
कोई नहीं पढ़वाता
हथेली की लकीरों में प्रेम
और न पूछता है
भाग्य बांचने वाले
मिट्ठू से
प्रेम की संभावना,
जबकि बिना प्रेम
निरर्थक ही तो हैं
बाकी सब
यहां तक कि
ये दुनिया और
लंबी आयु भी।
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