खो गया वो घाट
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
खो गया वो घाट जिस पे बैठ कर सपने बुने थे।
प्रेम भीगे शब्द अपनी उंगलियों से तब गुने थे।
कट गया जंगल कि जिसमें घूमती थी एक हिरणी
पंछियों के साथ उसने प्रिय हिरण के स्वर सुने थे।
वो नदी, झरना, वो पोखर, सूख कर रेतिल हुए हैं
कौमुदी और शंख, सीपी भी वहीं जा कर चुने थे।
फूल महुए का निखरता, गंध मादक फैलती थी
वो सुहाने दिन सुलगती धूप में भी कुनकुने थे।
नष्ट कर पर्यावरण को, बस्तियां फैला रहे हैं
सोचती है अब "शरद'' ये, क्या हरित दिन पाहुने थे?
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हार्दिक आभार रवीन्द्र सिंह यादव जी 🌷🙏🌷
ReplyDeleteवाह!!!!
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर
लाजवाब ।
हार्दिक धन्यवाद सुधा जी 🌷
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