कविता
खारा है समुद्र
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
यह मत सोचो
कि जिनके आंसू
दिखते नहीं,
वे नहीं रोते
मनुष्यों की तरह
रोती हैं नदियां भी
और फिर
रोती हैं मछलियां
सीपियां, घोंघे
कछुए, मगर
घड़ियाल,
केकड़े, झींगे
यहां तक कि
रोते हैं भंवर
और
तलछट की रेत भी
यानी रोती हैं नदियां
सुबक-सुबक कर
अपनी पूरी सम्पूर्णता से
तभी तो उठती हैं हिलोरें
पर नहीं दिखते आंसू
न नदियों के
और न नदी-बाशिंदों के
दरअसल,
बहा ले जाती हैं
लहरें
उनके आंसुओं को
दूर
बहुत दूर
हां !
तभी तो खारा है
समुद्र।
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