कविता
और हम हैं ख़ुश
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
दो पहाड़
बीच से उगता सूरज
बीच बहती नदी
सूरज के बाजू में
उड़ते पंछी
नदी के बाजू में
एक घर।
घर में एक दरवाजा
एक खिड़की
एक छत
एक चिमनी
घर के पीछे एक पेड़
आगे एक रस्ता
कुछ घास, कुछ फूल
यही तो थी बचपन की
परफेक्ट पेंटिंग
जिसे बनाया था
हम सभी ने
अपने-अपने बचपन में
और पाई थी शाबाशी
बड़ों से
अब हम बड़े हो चुके हैं
और सुखा रहे हैं नदियां
खोद रहे हैं पहाड़
काट रहे हैं पेड़
और
ढांक रहे हैं सूरज को
ज़हरीले प्रदूषण से,
रहा घर
तो वह भी बंट गया
टुकड़ों-टुकड़ों में
हम जी रहे हैं
अपने बचपन के विपरीत
और हमारे बच्चे
बना रहे हैं वही पेंटिंग
पाने को शाबाशी
हम प्रकृति-हंताओं से।
और हम हैं ख़ुश
अपनी प्रगति पर
बचपन की उस पेंटिंग को
भुला कर।
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(*प्रकृति-हंता = प्रकृति को मारने वाले)
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वाह.बहुत ही सुंदर
ReplyDeleteवाह! सुन्दर और सटीक ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर लेखन
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