09 June, 2023

कविता | बतियाती हैं मछलियां | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

बतियाती हैं मछलियां
   - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

नदी, तालाब, सागर, महासागरों
कुए, कुंड, पोखर और  झीलों में
तैरती हैं आवाज़ें
जब
व्हेल, शार्क, ट्राउट
पिरान्हा, गोबी, ईल
बतियाती हैं
छोटी बड़ी सभी मछलियां
करती है सचेत एक दूसरे को
जाल से
हार्पून और 
बिजली के करंट से।
डर लगता है सभी को 
शिकारी से

वे नहीं समझ पातीं 
क्यों मारते हैं 
भूमि पर रहने वाले 
जल में प्रवेश करके,
जैसी अपनी स्त्रियों को 
मारते हैं बिना वजह

क्या हम मछलियों में 
दिखती हैं 
उन्हें अपनी स्त्रियां?
यही चर्चा होती है 
टूना और सेल्मन मछली समूहों में

क्या उन शिकारियों को पता नहीं
कि जब मारी जाती है 
कोई ब्लू व्हेल या हैमर शार्क
तो उसकी चीत्कार से
उठती है तरंगे 
और उठती है सुनामी

आती है बाढ़ें नदियों में
मछलियों की आर्तनाद से ही
जबकि भूमि पर 
नहीं खड़कता एक पत्ता भी
एक स्त्री की नृशंस हत्या पर

मनुष्य 
क्या अब 
मनुष्य नहीं रहा?
ऐसा मैं नहीं, 
बतियाती हैं मछलियां।
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