04 October, 2021

छापामार उदासी | कविता | डॉ शरद सिंह

छापामार उदासी
        - डॉ शरद सिंह

उदासी
किसी छापामार की तरह 
आ धमकती है- 

बादलों से घिरी
अंधियारती शाम 
या फिर
किसी की याद,
किसी का छोड़ जाना,
किसी मित्र का
हो जाना अजनबी

पेंसिल की नोंक का
पहले ही शब्द पर टूट जाना,
चुक जाना पेन की रिफिल का
चार अक्षर लिखते ही

बात करने की
बलवती इच्छा पर
नेटवर्क व्यस्त मिलना,
या फिर, यूं ही अचानक
अकेला महसूस करना ख़ुद को

बस, एक बहाना
कोई भी, कैसा भी
उदासी 
हरदम 
फ़िराक में रहती है
आ धमकने की
चैन के दो पल भी
ज़ब्त कर लेने की
हताशा-निराशा का 
पंचनामा
लगा देता है
उस पर मुहर
मुस्तैदी से।
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4 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन  में" आज मंगलवार 05 अक्टूबर 2021 शाम 3.00 बजे साझा की गई है....  "सांध्य दैनिक मुखरित मौन  में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. बेहद खूबसूरत रचना।

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  3. आनुभूतिज अभिव्यंजना !

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