अनजाना मुस्तक़बिल
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
निपट उदासी बैठी है घर डेरा डाले
हर कोने में सूनेपन के मकड़ी जाले
भरी दोपहर अंधियारा छाया लगता है
या फिर दिन ही हो बैठे हैं काले-काले
उसकी बातें बसी हुई हैं दीवारों में
इक-इक लम्हा अब तो उसके हुआ हवाले
कब तक कोई खुद के आंसू को पोंछेगा
तनहा दिल क्या तनहाई को खाक सम्हाले
अनजाना मुस्तक़बिल* बैठा दरवाज़े पर
पलक झपकते चले गये दिन देखे-भाले
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*मुस्तक़बिल = भविष्य
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एकाकीपन की दक्ष व्यंझना ..।।।
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