दिए बनकर जलेंगे
- डॉ (सुश्री) शरदसिंह
घोर तम में भी न हम गुम हो सकेंगे ।
हम दिवाली के दिए बनकर जलेंगे ।
हो भले ही छल का जल खारा बहुत
या, हो गहरी स्वार्थ की धारा बहुत
आस्था के सीप का मोती बनेंगे
हम दिवाली के दिए बनकर जलेंगे ।
दर्द का इतिहास ही काफी नहीं है
प्यार का आभास ही काफी नहीं है
सत्य की, विश्वास की कविता लिखेंगे
हम दिवाली के दिए बनकर जलेंगे ।
ये अमावस भी ढलेगी, भोर होगी
सूर्य की किरणों की जगमग डोर होगी
चेतना में ज्योति का चंदन मलेंगे
हम दिवाली का दिया बनकर जलेंगे ।
श्रम न ठिठकेगा, न हारेगा कहीं भी
मन प्रलोभन से न बहकेगा कहीं भी
संकल्प के पथ से न अपने पग हटेंगे
हम दिवाली के दिए बनकर जलेंगे ।
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अंतिम छंद की दूसरी पंक्ति में सम्भवतः 'बहकेगा' शब्द आना चाहिए । बाकी यह आपका गीत न केवल समयानुकूल है शरद जी वरन उत्कृष्ट काव्य का ज्वलंत उदाहरण है । बहुत प्रतिभाशालिनी हैं आप, इस गीत को पढ़कर, अनुभूत कर एवं आत्मसात् कर के यह बात मैं निस्संकोच कह सकता हूँ ।
ReplyDeleteजितेंद्र माथुर जी,
ReplyDeleteटाईपिंग की त्रुटि की ओर ध्यान दिलाने के लिए हार्दिक धन्यवाद 🙏
काव्य पंक्तियों में एक भी शब्द या एक भी मात्रा त्रुटिपूर्ण होने से रसास्वादन में बाधा पड़ती है। अतः पुनः आभार 🙏🙏🙏