कविता
साहित्य का जलीकट्टू
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
गद्देदार किंगसाईज़ सोफे पर
पसर कर
लगा कर बुद्धिजीविता का मुखौटा
मदिरा के स्वाद से फूटते शब्द
जब करते हैं साहित्य-चर्चा
दलित, ग़रीब और
लुटी-पिटी औरतों पर
तो लगता है जैसे
मंहगे कैनवास और कीमती रंगों से
बनाई गई
भिखारी की पेंटिंग की
बोली लगाई जा रही हो लाखों में
गोया वह साहित्योत्सव नहीं
नीलामीघर हो संवेदनाओं का।
बेशक़ वहां नहीं होती
कोई 'कॉमन वैल्यू"
होती है सिर्फ़ "पर्सनल वैल्यू"
नीलामी के आम नियमों से परे
क्योंकि वह मजमा आम का नहीं
होता है ख़ास-उल-ख़ास का।
रेसकोर्स के घोड़ों
नीलाम होते खिलाड़ियों
और
साहित्य के कथित सेवियों में
अगर कोई अंतर
समझ में आए
तो मुझे ज़रूर बताएं
मेरी बुद्धि का राजहंस
हो गया है टट्टू
साहित्योत्सव भी इनदिनों
लगता है जलीकट्टू* ।
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(*जलीकट्टू पारंपरिक तमिल खेल। जली का मतलब है सिक्के और कट्टू का मतलब बैग। सिक्कों से भरा हुआ बैग बैल के सींगों पर बंधा होता है और बैलों को उकसा कर भीड़ में दौड़ाया जाता है। जो व्यक्ति बैल को क़ाबू में कर लेता है वह विजेता माना जाता है और विजेता को वह बैग मिल जाता है।)
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