ग़ज़ल
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
जब कभी, यादें पुरानी याद आती हैं।
ख़ुश्क आंखें भी अचानक भीग जाती हैं।
अब हथेली की लकीरों में नहीं कुछ भी
अब लकीरें भीगतीं, न कसमसाती हैं।
धड़कनें तकती नहीं हैं रास्ता उसका
शाम ढलते ही न अब शम्मा जलाती हैं।
किस दिशा में जा रहे हैं और क्यूंकर हम
ये हवायें भी नहीं कुछ भी बताती हैं।
है बहुत तन्हा, बहुत तन्हा 'शरद' का दिल
और ये तनहाइयां रह - रह रुलाती हैं।
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भावों को अभिव्यक्त करती मार्मिक ग़ज़ल ।
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