कविता
नहीं मालूम था
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
मुझे नहीं मालूम था
कि धूप
मेरे हाथ से
फिसल कर
शीत में
बदल जाएगी,
नहीं तो
मैं सूरज को
मुट्ठी में
भींच कर रखती।
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बहुत सुन्दर
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