04 September, 2021

त्वचा का आवरण | कविता | डॉ शरद सिंह

त्वचा का आवरण
          - डॉ शरद सिंह

त्वचा के आवरण के भीतर
अस्थि-मज्जा
रचता है
एक ऐसा जटिल संसार
जिसमें 
भावनाओं की सरिता
होती है प्रवाहित
हृदय-उद्गम से
नस-नाड़ियों तक

श्वेत अस्थियां
देती हैं प्रमाण
त्वचा के भीतर  
हर मनुष्य के
एक जैसे होने का
साथ ही बताती हैं
दैहिक विकास के 
उस क्रम को
जिसमें 
नवजातीय तीन सौ अस्थियां
आयु बढ़ने पर
रह जाती हैं
मात्र दो सौ छः

अस्थियां आपस में जुड़ कर
संवारती हैं देह
और उसी संवरी देह से
देह पर, देह के लिए
देह करती है अत्याचार
बहाना बना कर
त्वचा के रंग का,
त्वचा की स्निग्धता का,
त्वचा के जेंडर का

त्वचा
कसमसाती है तब
जब उसके भीतर सुरक्षित
मस्तिष्क की काली करतूतें
लांघ जाती हैं सीमाएं,
मर्यादाएं, चेष्टाएं
त्वचा छोड़ देना चाहती है साथ 
पर विवश है 
कसे रहने के लिए 
तने रहने के लिए 
आवरण बने रहने के लिए 
मनुष्य को सहेजने के लिए
मनुष्यत्व की आशा में
झुर्रियां पड़ने तक
घिस कर पतली होने तक
ओज़ोन परत की तरह।
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2 comments:

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" रविवार 05 सितम्बर 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. विज्ञान और काव्य का अनोखा संगम

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