वह नहीं आई
- डॉ शरद सिंह
वह गाय
जो रोज़
मेरे घर के दरवाज़े पर
आ खड़ी होती
करती जुगाली
उम्मीद करती
कुछ छिलके पाने की
एकाध बासी रोटी पाने की
आज वह नहीं आई
मैं जानती हूं
उसका है कोई मालिक
पूरा का पूरा कौलिक
दुह कर दूध
भगा देता है
अपने घर से,
शाम के बाद ही
लौट पाती है वह
सुबह फिर वही
दिनचर्या
दिन भर
यहां-वहां डोलती
मार खाती
अपने बड़े से शरीर को
दो-चार टुकड़ों पर जिलाती,
शायद
अपने गाय होने को कोसती
या फिर
'माता' कहे जाने पर
शर्मिंदा होती,
अपनी सुंदर
काली आंखों से देखती
मेरे दरवाज़े जब
गोबर कर जाती
मुझे बेसाख़्ता
झुंझलाहट से भर जाती
पर
आज नहीं आई वह
क्या हुआ उसे?
मालिक ने
बेच तो नहीं दिया
बूचड़खाने में?
बूढ़ी इंसानी मांए भी
निकाल दी जाती हैं घर से
फिर वह तो
महज़ गाय है
मुझे क्यों होना चाहिए दुखी
उसके न आने पर
मगर
क्या करूं
बिछड़ने का दर्द
हर बार
कर देता है विचलित
चाहे मां हो या गाय।
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(*कौलिक=पाखंडी)
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जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(२०-०९-२०२१) को
'हिन्दी पखवाड़ा'(चर्चा अंक-४१९३) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
ओह्ह्ह ... मार्मिक सृजन।
ReplyDeleteसादर।
क्यों झुलस गया है इंसानी मन इतना , कि शुन्य सा प्रतित होता माईया कि आह और गईया का रुदन रंभाना ।
ReplyDeleteबहुत मार्मिक रचना ।
मार्मिक रचना
ReplyDeleteवाह बहुत ही अच्छी और सुन्दर पंक्तियाँ लिखी है आपने। आपका बहुत बहुत धन्यवाद। Zee Talwara
ReplyDeleteऔर नहीं कोई मां जैसा , बिछुड़ के भी जो संग रहे !
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