12 September, 2021

रद्दीवाला | कविता | डॉ शरद सिंह

रद्दीवाला
    - डॉ शरद सिंह

वो चिरकुट-सा कबाड़ी
रोज गुज़रता है
मेरे घर के आगे से,
पुरानी घिसी 
मर्दानी सायकिल चलाता
आवाज़ लगाता
पुकारे जाने पर
मुस्तैदी से रुक जाता

मोल-भाव
सुतली बंधे तराजू के 
खोटे बांट,
जंजीरों की खनखन
अख़बारों के पन्ने
चढ़ते जाते
रद्दी के भाव

मैली ज़ेब से
तुड़े-मुड़े नोट
निकालता, गिनता
थमाता और
समेटने लगता
बासी ख़बरों और 
विज्ञापनों के ढेर को

कैरियर में बंधे बोरों में
ठूंस कर रद्दी
आगे बढ़ जाता
फिर पैडल मारता
फिर आवाज़ लगाता
गोया
ज़िंदगी भी हमें
रद्दी की भांति तौल कर
समेटती जा रही है
सांसों के चंद छुट्टों के बदले
एक कुशल रद्दीवाले की तरह।
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1 comment:

  1. गोया
    ज़िंदगी भी हमें
    रद्दी की भांति तौल कर
    समेटती जा रही है
    सांसों के चंद छुट्टों के बदले
    एक कुशल रद्दीवाले की तरह।
    वाह!

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