11 September, 2021

मुखौटे | कविता | डॉ शरद सिंह

 
 मुखौटे
- डाॅ शरद सिंह

थक गई हूं अब
सहानुभूति के खोखले शब्दों से
मेरी अपदा में 
अपना अवसर ढूंढने वालों से
वक़्त के साथ चेहरों से
उतरने लगे हैं मुखौटे

‘फ़ोन नहीं उठता’ का
उलाहना देने वाले -
कुछ ने 
मेरी त्रासद रात में
नहीं उठाया था मेरा फ़ोन
नहीं सुनी थी मेरी पुकार
नहीं दिया था
अपनी आवाज़ का भी सहारा

कुछ ने 
मेरे रुदन से 
अपने कानों को बचाने के लिए
मुझे नहीं किया फ़ोन
नहीं बोले दो शब्द
सांत्वना के

कुछ ने 
प्रतीक्षा की मेरे टूटने की
बिखरने की
अपने हाथों, अपना 
अस्तित्व मिटा देने की
अफ़सोस कि मैंने
निराश किया उन्हें

कुछ ने 
बात की
मगर ज़ल्द ही
मान लिया मुझे भी
मृत समान
जिसके ऊपर से गुज़र कर
आगे बढ़ने का 
साफ़ था रास्ता उनके लिए

कुछ ने 
कुछ दूर साथ दिया
फिर डर गए वे 
दुनिया से 
या अपने-आप से,
यह तो वही जानें

कुछ हैं आज भी साथ
बेहिचक, बेझिझक 
निःस्वार्थ (शायद),
छान देगा समय 
उनको भी 
प्रेम और इंसानीयत की 
छन्नी से

देखूंगी
कौन देता है साथ मेरा
मेरे अंत तक
फ़िलहाल उकताने लगी हूं
अपनी बेचारगी से

नहीं चाहिए मुझे दया,
नहीं चाहिए मुझे 
बहादुरी का तमगा,
नहीं चाहिए मुझे 
झूठा अपनापन

इन सबसे-
बेहतर है मेरा अकेलापन
मुझे नहीं जाता छोड़ कर,
मुझसे नहीं बोलता झूठ,
नहीं करता दावे 
मेरे आंसू पोंछने के,
वह मेरे साथ था
उस त्रासद रात भी,
है आज भी
और रहेगा हमेशा
मेरे साथ,
एक सच्चे,
बिना मुखौटे के
इंसान की तलाश में,
तलाश-
जो जानती हूं
कभी पूरी नहीं होगी
इस
बाज़ारवाद की दुनिया में
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