आज पढ़िए मेरी एक बुंदेली ग़ज़ल 😊👇🙏
बुंदेली ग़ज़ल
उन्ने कई थी
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
दिन फिर जैहें - हमने नईं, जे उन्ने कई थी।
सब तर जैहें - हमने नईं, जे उन्ने कई थी।
जो बिकास को चका चलो सो पेड़ेंई कट गए
सुख फर जैहें - हमने नईं, जे उन्ने कई थी।
मैंगाई ने कमर तोड़ दई, रीती पिकियां
घर भर जैहें - हमने नईं, जे उन्ने कई थी।
भ्रष्टाचारी अकड़ दिखा रये, पईसा गिन रये
बा डर जैहें - हमने नईं, जे उन्ने कई थी।
"शरद" विपत की किसां तुमाई,ने कोऊ सुन रओ
सुन कर जैहें - हमने नईं, जे उन्ने कई थी।
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सुन्दर सृजन
ReplyDeleteयह भाषा मैं शब्द-दर-शब्द समझ तो नहीं पाता, पर इसके भाव मुझतक अवश्य पहुंच गये। बढ़िया।
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