रोज़ ढूंढती हूं
- डॉ शरद सिंह
कुछ काम
करने हैं पूरे
कुछ उतारना है
बंधनों का ऋण
और
हो जाना है मुक्त
स्वयं से,
जीवन से
ज़हान से
रहना
किसके लिए?
बचना
किसके लिए?
टूट चुका है धरातल
अपनत्व का,
शेष है-
स्वार्थ, ईर्ष्या, द्वेष
ताना, उलाहना
व्यंग्य, कटाक्ष
लोलुपता,
वे सब
जो मेरे चेहरे पर
बांचते हैं ख़ुशी
उन्हें नहीं पता
कि
अपनी हथेली में
ढूंढती हूं रोज़
वह लकीर
जिस पर लिखा हो
चिर ठहराव
मेरी सांसों का।
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तुम तो पलायनवादी न थी । फिर ऐसी रचना ?
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