ज़िन्दा रहने के लिए
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
न्याय और अन्याय के बीच
जूझते, लड़ते,
थकते, हांफते
टूटते, गिरते
सरकती है उम्र
प्रचार और बाज़ार तंत्र के
काले तवे पर
समाचारों की
सिंकती हुई रोटियां
देखते हुए।
पीड़ितों को
न्याय दिलाने से
है ज़्यादा ज़रूरी
एक अभिनेत्री का
"ब्रा" पर बयान,
बवाल, सवाल, उछाल
अब विवादों पर ही तो
रचता है-
नेम, फेम, गेम।
यहां हैं सभी
अच्छे खिलाड़ी
सिवा सभ्य, सादे,
निरीह लोगों के,
सच!
ये दुनिया
नहीं है वैसी
जैसी है दिखती
झूठ बिकता है
नीलामी की
ऊंची बोलियों में
और सच का
तो कोई मोल ही नहीं
तो
अब होनी चाहिए
ऑनलाइन क्लासेस
झूठ, फ़रेब, धोखा
छल, कपट की,
यह सब सीख कर
कुछ नहीं तो
हो सकेगी दो रोटी की
कमाई
ज़िन्दा रहने के लिए,
सरकारी आकड़ों से परे
खोखले नियम और
न्याय के बिना,
संवेदना और
मानवता विहीन
इस छिछली दुनिया में।
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आज के परिवेश को बयां करती रचना
ReplyDeleteनकारात्मक सोच की अच्छी कविता...
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