कविता
कांटे में फंसे शब्द
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
कल ही तो बात है
संवाद के शब्द
विचारों के
थिर पानी में
बनाने लगे थे वलय
धीरे बढ़ती गई
तरंगों की आवृतियां
सच-झूठ की छन्नी
नहीं लग पाती है ताल में
सिर्फ़ लगता है जाल
मछलियां पकड़ने वाला
महीन जाल और मछेरा
मछली कहां समझती
उसके इरादे?
जाल से बच भी जाए
तो भरोसे की मछली को
नहीं दिखता है कांटा
और पता चलते-चलते
हो चुकी होती है देर
इतनी देर कि
केंचुआ-शब्दों में छिपे कांटे में
फंस कर
विश्वास के शब्दों से
रिसने लगता है रक्त
जल-तरंगें देखती हैं
एक और विश्वासघात
पर कुछ नहीं कर सकती
वर्तुल लहरें
भरोसा टूट चुका है
मछली मर चुकी है
रिसते रक्त के साक्ष्य
घुल गए हैं पानी में
और
बेदाग़ मछेरा
गदगद है एक नन्हीं
कमजोर मछली को मार कर
कांटे में फंसे शब्दों की चीत्कार
भला कौन सुनता है?
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