लिबास
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
इक बिजूका का
लिबास
हो गई है
ज़िंदगी मेरी
जिसके भीतर
थीं कभी
देह
धड़कने वाली
श्वास की ताप से
गरमा के
संवरने वाली,
आज, पर
उस लिबास के भीतर
एक निस्पंद देह रहती है
जो अनन्त दूरियों
को सहती है
देखते हैं ये
चलेगा कब तक
इक बिजूका को
ढंकेगा कब तक...?
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वाह। पारलौकिक अनुभूति से सिंकते शब्द!
ReplyDeleteHeart touching
ReplyDeleteगजब की पंक्तियां।