अचानक "सदीनामा" में अपनी कविता "बेचारा प्रेम" देखकर चकित रह गई और अत्यंत सुखद अनुभूति हुई...
आपकी हार्दिक आभारी हूं मेरी कविता का स्वतः चयन करने के लिए भारत दोसी जी 🙏
हार्दिक धन्यवाद 🙏🌹🙏
.................
मित्रो, आपकी पठन सुविधा के लिए कविता का टेक्स्ट भी यहां दे रही हूं...
बेचारा प्रेम
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
कल रात
मैंने सपने में देखा
बौखलाया
झुंझलाया
दिग्भ्रमित प्रेम
हर पल
बदल रहा था
उसका रूप-
कभी टूटा पत्ता
तो कभी
बिना हैण्डल का मग
कभी तुड़ामुड़ा काग़ज़
तो कभी
उखड़ी कॉलबेल
कभी गिड़गिड़ाता भिखारी
तो कभी
रुदन करती रूदाली
उसे व्यथित देख
पूछा -
दुख क्या है तुम्हें?
वह बोला-
छल करते हैं लोग
मेरा मुखौटा लगाकर
मुझे रहने नहीं देते
मेरी मनचाही जगह,
मैं चाहता हूं रहना
सीरियाई, तंजानिया
और बुरुंडी के
शरणार्थी शिविरों में,
मैं चाहता हूं रहना
धारावी की स्लम बस्ती
और
सोनागाछी के तंग कमरों में,
मैं चाहता हूं रहना
उन हथेलियों में
जिनमें नहीं है भाग्यरेखा
उन पन्नों में
जिन पर नहीं लिखा गया
मेरे नाम का पत्र
उन आंखों में
जो देखना चाहती हैं मुझे
उन सांसों में
जो संचालित होना चाहती हैं
मुझसे.....
वह देर तक बोलता रहा
मैं देर तक सुनती रही
फिर रोते रहे
गले लग कर
हम दोनों
नींद खुलने तक
बेचारा प्रेम
नहीं है वहां
जहां चाहता है होना,
ठीक मेरी तरह।
---------------
No comments:
Post a Comment