मित्रो, "नवभारत" के रविवारीय परिशिष्ट में आज 06.02.2022 को "आजकल" शीर्षक ग़ज़ल प्रकाशित हुई है। आप भी पढ़िए...
हार्दिक धन्यवाद #नवभारत 🙏
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ग़ज़ल
आजकल
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
ज़िन्दगी दिखती उदासी आजकल।
आस्था लगती धुंआ-सी आजकल।
हर तरफ व्यवहार में कड़वाहटें
दिन नहीं मिलते बतासी आजकल।
मित्रता के नाम पर धोखा-फ़रेब
बात कहने को ज़रा-सी आजकल।
इश्तिहारों पर चटख से रंग हैं
अन्यथा सब कुछ कपासी आजकल।
बुन रही है स्वप्न का इक घोंसला
आंख भी नन्हीं बया सी आजकल।
आजकल कुछ हो गया हालात को
मावसी है, पूर्णमासी आजकल।
कंदराएं अब भली लगने लगीं
हो गया मन आदिवासी आजकल।
निर्जला व्रत कह दिया हमने, मगर
आत्मा तक है पियासी आजकल।
तुम नहीं हो तो ‘शरद’ भी खिन्न है
हर हंसी है सप्रयासी आजकल।
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सुन्दर रचना !
ReplyDeleteआजकल भी आजकल का है नहीं !
ये युगों कल्पों का भी तो कहीं !!
आजकल यहीं सब हो रहा है
ReplyDeleteबढ़िया रचना आदरणीय