परवश में बीत रही जिंदगी
- डॉ शरद सिंह
कर्जों पर कर्जे हैं ब्याज के।
बारिश में भीगते अनाज के।
अन्नदेव क्रोधित हैं आज फिर
देख दशा लापरवाही-राज के।
घर लौटे थे जो मजदूर वे
बैठे हैं बिना काम-काज के।
झुलसन के दाग़ अभी बाकी हैं
क़िस्मत पर गिरी हुई गाज के।
उत्तर की खोज अभी बाकी है
खड़े हुए प्रश्न हैं समाज के।
परवश में बीत रही जिंदगी
कहने को दिन है स्व-राज के।
सुख के तट देख नहीं पाएंगे
देखिए, सुराख़ तो जहाज के।
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