दिन कैसा ये दिखलाया
- डॉ शरद सिंह
छूट गई है रोज़ी-रोटी, छूट गई छत की छाया।
महानगर के पत्थर दिल ने, दिन कैसा ये दिखलाया।
कर लेते थे घनी-मज़ूरी, सो रहते थे खोली में
हमने वो सब किया, जो क़िस्मत ने हमसे था करवाया।
गांव भेजते थे कमाई का, आधा पैसा हम हरदम
कई दफ़ा तो भूखे रहकर, हमने भारी वज़न उठाया।
घरवाली जब साथ आ गई, मुनिया छोटू भी जन्में
हमने भी मुफ़लिस में जीता, छोटा-सा संसार बसाया।
जिन शहरों को शहर बनाया, जिनको था हमने अपनाया
उन्हीं शहरवालों ने हमको, पल भर में ही किया पराया।
आज गांव की ओर हैं वापस, भारी मन का बोझ उठाए
यही ग़नीमत राह-राह में, लोगों ने अपनत्व दिखाया।
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