Poetry of Dr (Miss) Sharad Singh |
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दोपहर
तपती, झुलसती
डोलती है
गर्म सांसें छोड़ती
कुछ बोलती है
खोलती है याद की
गठरी पुरानी
है बंधा जिसमें
विहंसता बालपन
बंद कमरों में
था गुज़रता ग्रीष्म-दिन
और कटता था जो
उपन्यासों के संग
वह युवापन।
अब न वैसी छुट्टियां
न ही वैसी फ़ुरसतें
है अगर कुछ तो -
तपती गर्मियां हैं
याद की गठरी उठाए पीठ पर!
- डॉ शरद सिंह
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