डॉ आभा श्रीवास्तव छतरपुर की विदुषी साहित्यकार एवं समीक्षक हैं। उन्होंने मेरे बुंदेली ग़ज़ल संग्रह "सांची कै रए सुनो रामधई" की समीक्षा की है जो आज दैनिक "नयादौर" में प्रकाशित हुई है।
समीक्षा का टेक्स्ट यहां साझा कर रही हूं..👇
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पुस्तक समीक्षा
बुंदेली माटी के स्पर्श के साथ 'सांची कै रये सुनो,रामधई का चिंतन'
- आभा श्रीवास्तव,समीक्षक, पूर्वप्राचार्य
छतरपुर (मध्यप्रदेश)
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पुस्तक - सांची कै रए सुनो रामधई (बुंदेली ग़ज़ल संग्रह)
कवयित्री - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
प्रकाशक - जेटीएस पब्लिकेशंस, वी-508, गली नंबर 17, ब्लॉक सी, विजय पार्क, उत्तर पूर्व, दिल्ली, 110053
मूल्य - 150/-
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बुंदेली गजल संग्रह 'सांची कै रये सुनो ,रामधई ' में देश विदेश ख्यातिप्राप्त कवयित्री एवं साहित्यकार डॉ. (सुश्री) शरद सिंह ने बुंदेली में प्रचलित शब्दों का इस्तेमाल करते हुए वर्तमान की ज्वलंत समस्याओं को बखूबी उकेरा है। बुंदेली की माटी को स्पर्श कर पूरे देश के लिए चिंता व्यक्त की है और चिंतन के लिए बाध्य कर दिया है। कथा, कविताएं, निबंध, रूपक आदि बहुत सी विधाओं पर पत्रकारिता के साथ सशक्त लेखनी गतिशील रही है बुंदेली पर भी खूब लिखा और सफलता व प्रसिद्धि का परचम लहराया। संग्रह में अधिकांश गजल की पंक्तियाँ चुटकियां लेकर रोचक अंदाज में ठेठ बुंदेली शब्दों के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाईं है। लोक धुन अर्थवत्ता को गुनगुनाती समस्त ग़ज़लें अभिभूत कर रही है।
अपने स्वभाव के अनुरूप उन्होंने सच कहने में संकोच नहीं किया। सीधी सच्ची बात करना उनके शब्दकोश में है। इसलिए निश्छल,नि: स्वार्थ होकर मिथ्या, अनर्गल, बड़बोलेपन का पर्दाफाश करने के लिए राम की सौगंध के साथ अपनी बात को (गजल) ठोस आधार बनाया। शरद जी ख्यातिलब्ध उच्च कोटि की रचनाकार हैं। बुंदेली के बोलचाल के शब्दों का सहारा लिया गया है।
बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी शरद जी ने संग्रह का जोरदार और ध्यानाकर्षित करने वाला शीर्षक चुना जो संग्रह की संपूर्ण रचनाओं का सार और केन्द्रबिंदु है। बुंदेली रचना करना श्रमसाध्य कार्य है, शब्दकोश की समझ होना तथा खजाने से चुन-चुन कर लाना सरल नहीं है। लेकिन ये शब्द अनायास ही सहज रूप से गजलकार पकड़ती गई है क्योंकि उनकी मुट्ठी में बुंदेली शब्दों के रत्न समाहित है।
चुनाव पर बड़े बड़े वादे होते हैं और विकास की धीमी गति, बढ़ती मंहगाई, भ्रष्टाचार,चोरबाजारी, लूटपाट,लालच देकर भ्रमित करते रहना, अनुभवों की कमी के तहत भी राजपाट चल रहा है। दीन-हीन की कोई नहीं सुनता। चुनावी दावों का छल 'उन्ने कई ती' पंक्तियों में मुखर हुआ है-
दिन फिर जैहें-हमने नई ,उन्ने कई ती,
सब तर जैहें- हमने नई,उन्ने कई ती।
जो विकास को चका चलो सो पेड़े ई कट गये,
सुख फर जैहें-हमने नई उन्ने कई ती।
गजलकार की सीधी चुनौती है कि सच तो कहना ही है। मुझे चुप नहीं करवा पाओगे, जनता की हाय लगेगी-
जोन दिखाये सो कर लइयो
हमे चुप्प ने तुम कर पइओ
हमने मुतके गम देखे हैं
हमने डरबो जानो रइयो
साहित्य की धनी शरद जी ने 'पढ़बे गओ तो रामकटोरी' में मजदूर के जीवन की रिक्तता के मर्म को छुआ है। क्या प्रेमचंद जी को ज्ञात था कि सभी ओर धनिया व होरी जैसे पात्र संघर्षरत हैं।
प्रेमचंद सोई जानत्ते जे
सबईं जगां हैं धनिया होरी।
थकी मताई ईंटा ढोके
कौन सुनाबे लल्ला लोरी
मास्साब की भैंस चरा रओ
पढ़बे गओ तो रामकटोरी।
सर्वाधिक गहराई लिए हुए गजल'रामधई' जो गजल संग्रह के निचोड़ की सार्थकता और पीड़ा को व्यक्त कर रही है। एक ऐसी टीस जो सौगंध खाकर सत्यता को सुनने और विश्वास करने के लिए बाध्य करती है।जब लोग किसी बात पर विश्वास नहीं करते तो राम की सौगंध गीता बन जाती है -
सांची कै रये, सुनो रामधई
पीरा हमरी गुनो रामधई।
जो तुम हमरो भलो चात्त हो
हमरे कांटा चुनो,रामधई।
तुम निकरे खौलत भये पानी
हम समझे गुनगुनो रामधई।
जब स्थिति दयनीय होती जाती है। अफसरशाही, नेतागिरी की योजनाओं का एवं कार्यशैली का कोई अंजाम नहीं मिलता फिर भी उनके जयकारे लगाना विवशता बन जाती है। 'औ तुमाई जय हो 'गजल में शरद जी ने चुटकी ली है,ढोल में पोल है जहां जनता पिस रही है,करारा व्यंग्य है -
हुन्ना फट गये,टठिया बिक गई,औ तुमाई जय हो!
बिपत, गरीबी इते खों टिक गई ,,औ तुमाई जय हो!
हमने देखी खींब योजना,औ तुमाये कारज
तुमरी-तुमरी रोटी सिंक गई,औ तुमाई जय हो!
संसद की सस्ती थाली का जिक्र कर तीखा व्यंग्य है। जनता की जेब मेहनत मजदूरी कर मंहगी थाली से खाली हो रही है। 'हमरी जिनगी सूकी डाली 'गजल के माध्यम से वे कहती हैं-
उते मिल रई सस्ती थाली।
इते हो गईं जेबें खाली।
बे संसद की गलियां ठैरींं
उनकी बांते खूब निराली।
इसी तरह लूटपाट, भ्रष्टाचार, ब्लैकमेलिंग के कारण विश्वास खो गया है।'लाज बचावै कैसे तिरिया 'गजल की पंक्तियां बयां करती है -
कोऊ खोल-खाल लै जैहे
खुल्ले में न बांधों छिरिया।
चोर-चकारी करबे बारे
करत फिरें अब नेता गिरिया।
सब लेके मोबाइल घूमें
ब्लैकमेल को जो बी जरिया।
बांट-बांट मूफत के पइसा
कर रये खाली बे भंडरिया।
'दद्दा जू 'बुंदेली का सम्मान जनक शब्द है। उम्र होते ही रिटायर कर दिए गए। ऐसे कि सम्मान ही चला गया। अपनों ने ही नकारा और तिरस्कृत कर दिया गया।
कंधा चढ़त्ते,पीठ चढ़त्ते मोड़ा जो
उनके लाने जीते मर गये दद्दा जू।
"शरद"उने ने मिलो कभउं तीरथ करबे
गंगा मैया इतइ सपर गये दद्दा जू।
ग़ज़लें चुटकी लेती है, मुस्कुराहट लाती है,ठहाके भी लगवाती है। लेकिन अर्थ इतने गहरे हैं कि आँखे भर-भर आती हैं। देश के एक-एक, छोटे-छोटे कोने भी अपनी कथा व्यथा कह रहे हैं। चिंतन के लिए प्रेरित करती है ये ग़ज़लें । पर्यावरण बचाओ की कार्यशैली भी आडंबर और दिखावे में प्रदूषित हो गई है।'इक पेड़ लगाए'गजलकार का तीखा व्यंग्य-
चलो मताई के लाने,इक पेड़ लगायें।
फोटोग्राफर से ऊकी फोटू खेंचवायें।
सोसल मिडिया पे अपनी रीलें चमका खें
जलवायु के लाने अपनो रोल निभायें।
गायों की दयनीय स्थिति पर भी शरद जी ने पाठकों का ध्यान खींचा है-
दोरे-दोरे फिर रई भूकी जे गऊ माता
जीते जी सो पिर रई,भूकी जे गऊ माता।
मनुष्य के लालच की अधिकता में धरती का स्वरूप किस तरह बिगड़ गया है। पर्यावरण की दुर्दशा से विचलित होकर गजलकार 'धरती मैया 'गिट्टी ढो रई' गजल के माध्यम से विनाश को अभिव्यक्त करती है। इसी तरह 'कभऊं ने भूलेंगे बे दिन तो' गजल में बचपन में अनुभूत प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता के साथ रहन-सहन, तीज-त्योहारों के वास्तविक उत्साह का स्मरण करवा दिया है। वर्तमान में पालीथिन बहुतायत से किस तरह संपूर्ण वातावरण प्रदूषित कर रही है।' अगर संभल गये पन्नी से 'गजल में समझाइश दी है।
'हमरे धीरज से न खेलो' गजल भी विचलित करती है कि धैर्य की भी एक सीमा होती हैं। जनता कितना झेल रही है। टैक्स व मंहगाई ने जनता को थका दिया है, चोटिल जैसा कर दिया है। 'पब्लिक भई सयानी'मे बचपन के खेल की पंक्तियां याद दिलाते हुए दर्शा दिया है कि पानी ऊपर आता जा रहा है। विकास कागजी कार्यवाहियों तक सीमित है--
घोर घोर रानी, है कित्तो कित्तो पानी।
राजा भओ चतुरा, पब्लिक भई सयानी।
अंत में करारे व्यंग्य के माध्यम से ही गहन चिंतन है-
कागज पे थी हत्ता दिखानी प्रोग्रेस जो
"शरद"सोच ने पाई ,जा के कहां समानी।
अत्यंत मार्मिक सारगर्भित हैं
"पीछे देखो मार खाई "गजल बचपन में पूर्ण उत्साह से खेला जाने वाला खेल का ही प्रतिरूप है। गजलकार ने बालखेल के सहारे विसंगतियों की ओर ध्यानाकर्षित करने में अहम भूमिका निभाई है कि पीठ पीछे नजर डालो क्या हो रहा है-
घोड़ा बादाम साईं, पीछे देखो मार खाई।
मोड़ा भओ आवारा,रोत फिर रये बाप मताई।
'इन्ने -उन्ने तय कर लओ' गजल को भी बालखेल का स्मरण कर वर्तमान की अव्यवहारिक स्थितियों पर तंज कसा है और भेद खोला है-
अक्कड़ बक्कड़ बंबे बो,औ अस्सी नब्बे पूरे सौ।
कुर्सी वाले जेई चाउत,आंख मींच के बोलो हओ।
शरद जी की पारखी दृष्टि और सक्षम भावप्रवणता और कला पक्ष का संगम अद्भुत है।
शिशु की निंद्रा के लिए गाई जाने वाली लोरी को माध्यम बनाकर मधुरता और गेयता लाकर शब्द चयन से वर्तमान की अव्यवहारिता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिए-
लल्ला -लल्ला लोरी,ले दूध की कटोरी
जे न पूछो कां गयी, गल्ला की बा बोरी।
'सांची-सांची' गजल ने झूठ और स्वार्थ से भरोसा उठ गया है का सच डंके की चोट पर कह दिया है। गजलकार ने यह जता दिया है एवं ढिंढोरा पीट दिया है कि जो भी कहा गया है, संपूर्ण सत्यनिष्ठा के साथ कहा गया है।
अच्छे 'दिन की हवा न आई'गजल में जाके पांव न फटे बिवाई पर आधारित निर्धनता सबसे भयावह विवशता है, जिस पर बीतती है वही समझ सकता है।अच्छे दिन की आस में संघर्षमय व अभावपूर्ण जीवन जीने की बाध्यता पर टूटती उम्मीदें आँसू बहा रही है।
'हिली मिली दो बालें आईं' बालिकाओं के मनोरंजक खेल का सहारा लेकर चोर चोर मौसेरे भाई का रूप है , इसलिए न्याय की आस लगाना व्यर्थ है। निर्दोष को सजा मिल रही है और अपराधी बेलगाम हो रहे हैं।ये पंक्तियां झकझोर देती है-
मरी मछरियां फंसे जाल में
होत न मगरों की पकड़ाई।
चंदा उसई आये हिरानो
कां बिलानी रात जुन्हाई।
झूठ दिखावे के बीच और अभावों में जिंदगी बड़ी जटिल हो गई है।गजल 'हुन्ना घांई जिनगी फिंच गई' में दर्शाया गया है कि जिंदगी कपड़ों की तरह निचोड़ ली गई है। जनता त्रस्त है।
तमाम माया जाल से अतृप्त तृषित आत्मा ईश्वर की छत्रछाया में अपार सुकून पाती है। जुगल किशोर की शरण में आकर गजलकार का भक्ति भाव भरा माधुर्य छलक रहा है। जुगल किशोर का मनमोहक श्रंगार कर उन पर मोहित हैं। दर्शन के लिए दूर जाने की आवश्यकता नहीं है।शरद का हठ है कि-
कान्हा!मोये वृंदावन नई जाने।
इतईं बंसुरिया परहे तुमे सुनाने।
राधारानी संग ग्वाले बी मिलहें।
तुमरी सगरी लीला इतई कराने।
गाते हुए यह भी कह रही है--
हीरा जड़े मुरलिया में जो पन्ना के
जुगल किशोर तुमे अब इते इतराने।
(शरद जी पन्ना की रहवासी रही है। पन्ना के हीरा प्रसिद्ध है और जुगल किशोर जू का मंदिर आलोकित है )
गजल 'काये क्यों इतराने'मे सत्ता को चेतावनी देते हुए स्वर है।पाँच वर्ष के लिए जीत व पद का पावर मिला है। अहंकार मत करो,जो है वह भी स्थाई नहीं है। ऐसे राजपाट में -
घुनो चनो को दानों
अम्मा चली भुनाने।
होरी हो चा धनिया
सबको दुक्ख उठाने।
जनता की आवाज बनकर उन्होंने व्यंग्यात्मक तर्ज में उलाहना दी। स्वार्थ और विसंगतियों से भरे अपने क्षेत्र की (जो देश के ओर छोर तक है) दुर्दशा उनसे देखी नहीं जा रही है। अतिरेक बढ़ गया है, विचलित हो गई है वह यह सब असह्य है। उन्होंने गजल को स्वर दिया 'जोन लगाओ बेई फर रये'सेवाओं के अवसर स्वार्थ से भरे हुए हैं।लोग मनमानी पर उतारू है-
"शरद"कौन को परी काऊ की
रिस्ता लौं पत्ता से झर रये।
उने जिताओ रओ हमई ने।
अंत में शरद इस सत्य के मर्म को भी समझाती है कि कोई भी अमर नहीं हुआ है। अंततः यह आत्मा रूपी पंछी देह रूपी बसेरा छोड़ देगी।सब यही रह जायेगा। जाति,धर्म भावना से परे होकर द्वेष,क्रोध, आदि सभी विकारों से मुक्त रहो। यहां कबीर,सूर व तुलसी की दिव्य पंक्तियों का भाव परिलक्षित होता जान पड़ता है। उत्कृष्ट रचनाओं को अभिव्यक्त करती रचनाकार का गजल संग्रह ठोस धरातल पर सृजित है। आदर्श, श्रेष्ठ , सकारात्मक और सृजनात्मक व्यक्तित्व ही प्रासंगिक है। आचरण में उदात्तता अनिवार्य हो गई है का उल्लेख करतीं जीवन मूल्यों को सहेजती देश व विश्व मे ख्यातिलब्ध शरद जी अपनी सशक्त लेखनी से बुंदेली में भी कथा,लेख व काव्य सृजन तथा शोधकार्य में गहनता के साथ संलग्न होकर पुरस्कृत हुईं हैं। बुंदेली के शब्द चयन में सिद्धहस्त हैं। मधुरता का संचार करते कटुसत्य का पर्दाफाश करते बोलचाल में प्रयुक्त होने वाले पारंपरिक शब्द अपनेपन की मिठास से पाठक को सराबोर करते हैं। शरद जी के महत्वपूर्ण योगदान के लिए अनन्त शुभकामनाएं।
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