कविता
एक और साल
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
एक और साल
जाते-जाते
मावठे के पानी से
होकर तरबतर
बांधे उम्मींदों की पोटली
ठिठुरता रहा देर तक
क्योंकि
इसी मवाठे में भीगा है
हजारों क्विंटल सूखा अनाज भी....
जाता हुआ साल
फिर गरमाया कुछ
अपने बारह महीनों के
खट्टे, मीठे
अनुभवों के लिहाफ़ को
ओढ़ कर....
सोचता रहा-
उन किसानों के बारे में
जिनके मुद्दे आज भी
जूझ रहे हैं,
लंबित हैं,
सरकारी दस्तावेज़ की तरह।
और बढ़ते अपराधों के आंकड़ें
जो बैठे हैं
मुंह चिढ़ाते
अगले साल की अगवानी में।
अच्छा था साल
जो गुज़रा
लेकिन उतना भी नहीं
जितना कि सोचा था
चाहा था....
हर एक के लिए काम
हर एक के लिए रोटी
हर एक के लिए घर
हर एक के लिए शिक्षा
हर एक के लिए स्वास्थ्य
हर एक के लिए सुरक्षा
यह सब पूरा तो नहीं हुआ...
अच्छा था साल
जो गुज़रा
लेकिन उतना भी नहीं
जितना की सोचा था
चाहा था....
फिर भी अच्छा था साल
क्योंकि हमारी संस्कृत में
लौटकर न आने वाले को
बुरा नहीं कहते...
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