Poetry of Dr (Miss) Sharad Singh |
मेरे चालीस दोहे - डॉ. शरद सिंह
रखा हुआ है मेज पर, अब तक वह रूमाल।
जिसे छोड़ कर कह गए, अपने मन का हाल।। 1।।
खिड़की पूछे- ‘क्या हुआ?’, दीवारें चुपचाप।
पोर-पोर तक जा चढ़ा, प्रेम ज्वार का ताप।। 2।।
मन तो चाहे लांघना, हर चौखट, हर द्वार ।
सकुचाया मन दो क़दम, उठ कर जाए हार।। 3।।
देह कमलिनी-सी हुई, अधर हुए जासौन।
हृदय करे कलरव मगर मुख ने साधा मौन।। 4।।
मोरपंखियां चाहतें, छीने दिल का चैन।
सपनों में तो रोज़ ही, मिले नैन से नैन ।। 5।।
अस्त-व्यस्त है ज़िन्दगी, नहीं सूझता काम।
धरे हाथ पर हाथ अब, बीते सुबहो-शाम।। 6।।
सूरज झांके भोर से, चढ़ कर रोशनदान।
भाव-भंगिमा बांचता, देखे दे कर ध्यान।। 7।।
गोपन रखना है कठिन, परिवर्तित यह चाल।
बिन बोले ही व्यक्त है, दिल का पूरा हाल।। 8।।
वीतराग को त्याग कर, जीवन हुआ सप्रीत।
कहां जाऊं अब छोड़ कर, तेरे दर को मीत।। 9।।
नदी थिरती घाट पर, थिरके जल की धार।
प्रेम-नाव पर बैठ का, आ पहुंचो इस पार।। 10।।
करो दस्तखत द्वार पर, हल्दी से दो छाप।
शेष रसम हो जाएगी, पल में अपने-आप।। 11।।
काग़ज़, कलम, दवात का आज नहीं कुछ काम।
संकेतों में व्यक्त है, मन की चाह तमाम।। 12।।
मैं जो मुक्त उड़ान हूं, तुम विस्तृत आकाश।
तुम पर आ कर ख़त्म है, मेरी सकल तलाश।। 13।।
थिगड़े वाली चूनरी, ओढ़े बैठी हीर।
फटे दुशाले में बंधी, रांझे की तक़दीर।। 14।।
मिला मेघ था यक्ष को, दूत बनाने हेतु।
इस युग में पाना कठिन, सम्वादों का सेतु।। 15।।
तेरे-मेरे बीच की दूरी, सौ-सौ मील।
फिर भी किरणें हैं यहां, जले वहां कंदील।। 16 ।।
बिना मिलाए मिल गई, दो हाथों की रेख।
तेरा-मेरा साथ है, जीवन भर का लेख।। 17।।
छंद सुवासित हो गए और रसीले गीत।
इसी तरह मधुमय रहे, तेरी-मेरी प्रीत।। 18।।
दरपन ले कर हाथ में, देखी है छवि रोज।
फिर भी लगता है यही, आज हुई है खोज।। 19।।
मेरी अांखों से बही, भीगे तेरे गाल।
अश्रु-धार करने लगी, ऐसे विकट कमाल।। 20।।
तुम सागर-तट पर रहो, या बैठो मरु-धार।
नहीं घटेगा देखना, मन से मन का प्यार।। 21।।
मानव नश्वर हो भले, किन्तु अनश्वर आग।
देह मिटे, मिटती रहे, रहे प्रेम औ राग।। 22।।
गुरु के आगे लघु रहे, दोहे की ये रीत।
वैसे ही सामर्थ्य संग, बसे हृदय में प्रीत।। 23।।
‘शरद’ ज़िन्दगी मांगती, बस इतना अधिकार।
जब तक ये सांसे चलें, मिले सदा ही प्यार।। 24।।
दीप्त हुई है चांदनी, खिला चमेली फूल।
झरबेरी रेशम हुई, मखमल हुआ बबूल।। 25।।
रची हथेली पर हिना, माहुर दहके पैर।
अब तो हो जाए सगा, कल तक था जो गैर।। 26।।
संबंधों की भीत पर, एक सातिया और।
बहकी-बहकी भावना, पा जाएगी ठौर।। 27।।
सात जनम यायावरी, बनी रही जो चाह।
तेरे कांधे सिर टिका, मानो मिली पनाह।। 28।।
सच कहना! क्या थी नहीं, प्रणयबद्ध ये चाल।
जानबूझ कर छोड़ना, अपना प्रिय रूमाल।। 29।।
‘रवि वर्मा’ के चित्र-सी, खिचीं हुई है रेख।
मौसम जिसको देख कर, लिखे प्रेम के लेख।। 30।।
‘शरद’ पलाशी चाहतें, फूले-फलें जरूर।
उनमें दूरी न रहे, जो अब तक थे दूर ।। 31।।
दो नयनों का लेख है, कर लो खुद अनुवाद।
बोल उठी जब देह-लिपि, करना क्या सम्वाद।। 32।।
सुबह पूर्व में लालिमा, ज्यों सेंदुर का रूप।
शगुन लिखे फिर द्वार पर नई-नवेली धूप।। 33।।
अमराई की बौर से, हुआ सुवासित नेह।
खिली पंखुरी की तरह, समिटी थी जो देह।। 34।।
रखता है मन रोज ही, कच्चा आंगन लीप।
तुम भी रख जाओ तनिक अपनेपन का दीप।। 35।।
कोयल बोले तो लगे, कूक रही इक नाम।
मेरा प्रियतम है वही, द्वापर वाला श्याम।। 36।।
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।
करो मंत्र स्वीकार यह, मुस्कायेगी प्रीत।। 37।।
‘शरद’ ज़िन्दगी के लिए, इतना है पर्याप्त।
इस दुनिया में हर तरफ, रहे प्रेम ही व्याप्त।। 38।।
सभी रहें सुख से यहां, सब में हो अनुराग।
कलुष नहीं डाले कभी, मन-चादर पे दाग।। 39।।
‘शरद’ आपसी प्रेम की कथा न होवे शेष।
रत्ती भर छूटे नहीं, इस धरती पर द्वेष।। 40।।
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