कविता
प्रेम का पुण्य-स्मरण
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
दो दरवाज़े
दो खिड़की वाले
कमरे की
सवा तीन दीवारों
में से एक पर
पीठ टिका कर
करती हूं
प्रेम का पुण्य-स्मरण
प्रेम
जो कभी आया था जीवन में
एक पूरे चांद
और दिन के उजाले की तरह
ऊर्जा, उष्मा, संभावना, सुख
सब कुछ तो था उसमें
हां,
यही तो लगा था मुझे
किंतु वह प्रेम
तो निकला
रेगिस्तानी
रेत के टीले
की तरह
एक आंधी में
बदल गया
उसका ठिया
रेत के टीले
बदलने पर जगह
नहीं छोड़ते निशान भी
पर मन रेत नहीं, रेगिस्तान नहीं
यह तो रहता है स्पंदित
धड़कन की
हर थाप के साथ
सो, जब मैं करती हूं
दिवंगत प्रेम का पुण्य-स्मरण
तो भले ही
बदल जाता है कमरा
एक तपते रेगिस्तान में
पर मेरे होठों से
फूट पड़ते हैं
श्रद्धांजलि के
दो शब्द
उसके विछोह नहीं,
अपने टूटे हुए
सपनों के लिए।
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एक-एक शब्द हृदय के भावों को अभिव्यक्त करता हुआ। मर्मस्पर्शी सुंदर सार्थक रचना
ReplyDeleteबहुत सुंदर,मन को छूती हुई
ReplyDeleteबहुत बहुत सुन्दर सराहनीय
ReplyDeleteबहुत ही मर्मस्पर्शी सृजन ।
ReplyDeleteहदय छू लेनेवाली गहरी रचना।
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