कविता
अहसास
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
तब मैं
कुछ हुआ करती थी
जब मुझे
पुकारता था कोई
ममता से भर कर,
दुलार कर
पुचकार कर
मनुहार कर...
लड़कपन
जाग उठता था
मेरे भीतर
सात जन्म
सात रंग
और
सात समुद्रों-सा
जीवंत
अब कोलाहल है
पर वह
स्वर नहीं
सूखी दीवारें
रचती रहती हैं
रेत के टीले
हर पहलू
हर करवट
के साथ
एक अथाह रेगिस्तान
दिन की तपन
रात की ठंड
और कुछ नहीं
बस, कुछ साए
खेलते हैं
सांप-सीढ़ी
मेरी
भावनाओं के साथ
बेचारे!
उन्हें नहीं पता
कि व्यर्थ है उनका
प्रयास,
अब नहीं होता
मुझे अपने
होने का भी
अहसास।
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शानदार रचना
ReplyDeleteसुन्दर
ReplyDeleteबहुत बहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteवाह! बेहतरीन!
ReplyDeleteबेहतरीन
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