कविता
अब तो ...
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
दीवार पर हथेली की
धुंधली पड़ती छाप
टूटती थाप
ज़िंदगी छूटे हुए
मकान की तरह
वीरान
गोया
दो गज ज़मीन के नीचे
एक ताबूत में
ज़िंदा दफ़्न
नहीं चाहिए
हवा, पानी धूप
या सांसों की धौंकनी
चिता की
स्थूल लकड़ियों के बीच
रखे धड़कते दिल को
नहीं चाहिए
ये सब
हंसी, ख़ुशी और
प्रेम के लिए
अब तो इंतज़ार ...
अगले जन्म का
अगर
होता हो तो !
धैर्य के फूटे कुल्हड़ से रिसती
कथित रिश्तों की तप्त चाय
जलाने लगी है
उंगलियां, अब तो!
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बहुत सुंदर
ReplyDeleteसुन्दर
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteकविता के अंत में पूरा मर्म निकल आया कि - ---''धैर्य के फूटे कुल्हड़ से रिसती
ReplyDeleteकथित रिश्तों की तप्त चाय
जलाने लगी है
उंगलियां, अब तो!''...वाह शरद जी