उसके मैले चेहरे पर
तैर जाती है मुस्कान
खिंच जाती है
आंखों की कोर
रक्त की तरंगे
नीचे से ऊपर
ग्रीवा को छूती हुईं
दौड़ जाती हैं
ललाट तक
कांपता है
हाथ का कटोरा
खनकते हैं चंद सिक्के
किन्तु अधरों से
नहीं फूटते स्वर
टोंकता है मस्तिष्क
- 'मांग तू दाता के नाम'
पर मन
देता है उत्तर-
'मैंने प्रेम रतन धन पायो!'
उस पल
इतराता है प्रेम
खुद पर,
जब गुज़रता है
एक भिखारी के
हृदय से हो कर
और
पाता है
मधुर संकेत
एक भिखारिन से
प्रेम के लिए
न कोई अस्पृश्य
न कोई रंक
क्योंकि
प्रेम जानता है
पंच तत्वों की भांति
अपनी अनिवार्यता।
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बहुत सुंदर
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 03 जुलाई 2025 को लिंक की जाएगी ....
ReplyDeletehttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
ReplyDeleteप्रेम के लिए
न कोई अस्पृश्य
न कोई रंक
क्योंकि
प्रेम जानता है
पंच तत्वों की भांति
अपनी अनिवार्यता।
वाह वाह वाह, बहुत सुंदर
बहुत सुंदर
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