02 July, 2025

प्रेम कविता | इतराता है प्रेम | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

प्रेम कविता
इतराता है प्रेम
           - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

उसके मैले चेहरे पर
तैर जाती है मुस्कान
खिंच जाती है
आंखों की कोर
रक्त की तरंगे
नीचे से ऊपर 
ग्रीवा को छूती हुईं
दौड़ जाती हैं
ललाट तक

कांपता है
हाथ का कटोरा
खनकते हैं चंद सिक्के
किन्तु अधरों से
नहीं फूटते स्वर

टोंकता है मस्तिष्क 
- 'मांग तू दाता के नाम'
पर मन
देता है उत्तर-
'मैंने प्रेम रतन धन पायो!'

उस पल
इतराता है प्रेम
खुद पर, 
जब गुज़रता है
एक भिखारी के
हृदय से हो कर
और
पाता है
मधुर संकेत
एक भिखारिन से

प्रेम के लिए
न कोई अस्पृश्य
न कोई रंक
क्योंकि
प्रेम जानता है
पंच तत्वों की भांति 
अपनी अनिवार्यता।          
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