धुंध
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
उदास रात
और अनमनी भोर की
सौगात है धुंध
मन के गलियारे में
छाती है जब धुंध
नहीं काम आता
तब
विचारों का कोई
फॉग-लैम्प,
टकराती हैं भावनाऐं
एकांतिक अंधेरी सुरंग में
छल-कपट के
छोटे-बड़े वाहनों से,
फूटते हैं उम्मीदों के कांच
भोथरी किरचें करती हैं चोट
पर नहीं दिखते जख़्म
दिल की भट्ठी से
उठती हुई आग
बना देती है
आंसुओं को भाप
एक और धुंध
ले लेती है
अपनी आगोश में
एक और हादसा
दर्ज़ होता है
ज़िन्दगी के रोज़नामचे में,
एक और ख़बर
जिसे कोई नहीं पढ़ता
धुंध बखूबी
डाले रखती है पर्दा
जीने से पहले
मरने के बाद ही नहीं
साथ देती है धुंध
बहुत कुछ झेल जाने में।
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भावपूर्ण , मर्मस्पर्शी रचना।
ReplyDeleteसादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार ८ दिसम्बर २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
हृदयस्पर्शी सृजन!!
ReplyDeleteसुन्दर सृजन
ReplyDeleteबहुत सुंदर।
ReplyDeleteसुन्दर
ReplyDeleteदिल की भट्ठी से
ReplyDeleteउठती हुई आग
बना देती है
आंसुओं को भाप
एक और धुंध
ले लेती है
अपनी आगोश में
हृदयस्पर्शी धुंध.....मन को भिगों गई,काफी दिनों बाद आपके ब्लॉग पर मेरा आना हुआ
सादर नमन शरद जी किसी है आप
निसंदेह ये धुन्ध जीवन में एक सस्पेंस बना के रखती है...सुन्दर अभिव्यक्ति...👏👏👏
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