कविता
एक अधपढ़ी किताब
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
एक अधपढ़ी किताब
रखी है
मन की शेल्फ में
मुड़ा है
उस पन्ने का कोना
पढ़ने के लिए
फिर कभी
वहीं से
नहीं आया
वह 'फिर कभी'
आज तक
जबकि
ज़िंदगी
चली आई है
उस मुड़े हुए कोने से
दूर
बहुत दूर
फिर भी
कुछ किताबें
नहीं दी जा पाती हैं
किसी को भी
न किसी पढ़ने वाले को
न पुस्तकालय को
न रद्दी वाले को
तब तो और भी नहीं
जब हो वह किताब
अधपढ़ी।
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सुन्दर
ReplyDeleteसच में कुछ किताबें अधपढी ही रह जाती हैं ,फिर भी मन उन्हें सहेज कर रखना चाहता है । खूबसूरत सृजन।
ReplyDeleteऐसी अधपढ़ी किताबों पर अटका रहता है मन सदा...
ReplyDeleteफिर जीवन की उस अधपढ़ी डगर पर वापस पहुँचना आसान कहाँ होता है...
बहुत कुछ यूँ ही पीछे छूट ही जाता है.
अति उत्तम
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