प्रेम कविता
प्रेम करते हो तो
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
राग मल्हार हो
या मालाहारी*
अपने भीगे स्वरों से
करता है स्वागत
जल की उन बूंदों का
जो उठी थीं सागर से
उन्मुक्त, अतल, अनंत
गगन नापने
किंतु न जा सकीं आगे
क्षोभमंडल** से
हवाओं की
तनी हुई भृकुटी ने
रोक लिया रास्ता
भले ही
बूंद़ों ने गोपियों-सा
संगठित हो
किया था रार भी
चमकी थीं
अनेक बिजलियां
फिर समझ गई बूंदे़ं
लौटना होगा वापस
धरती पर
तो क्यों न लौट जाए
अपने मूल स्वरूप में
- यही सोचा बूंद ने
और बरस पड़ीं
जंगल, पहाड़, नदियों,
बस्तियों और सागरों पर
कण-कण ने
लगा लिया गले
उन बूंदों को
क्योंकि
कोई मुखौटा
कोई भी छल-छद्म
या कपट नहीं,
प्रेम तो चाहता है सदा
पारदर्शी जल जैसी
मौलिकता
अपने अस्तित्व में
यही तो कहती है
बारिश की हर बूंद-
प्रेम करते हो तो
मत झिझको लौटने से
बस, रहो निष्कपट
निष्ठावान और
विश्वसनीय
प्रिय के प्रति।
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* कर्नाटक संगीत का राग
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