बंधु, मेरे गांव में
- डाॅ सुश्री शरद सिंह
शब्द
परतीले हुए हैं
जब कभी
दूर होते ही गए अपने सभी।
सूर्य फिसला
उस पहाड़ी के शिखर से
जो नदी का भार भी
न ढो सका
बंधु, मेरे गांव में
कोई अभी तक
चैन से न हंस सका,
न रो सका
दर्द
पथरीले हुए हैं
जब कभी
टीस बोते ही गए अपने सभी।
रेत पिघली
नम हथेली की जलन से
और सीने पर उतरती
ही रही
बूंद के भ्रमजाल में
बांहे पसारे
नेह हिरनी रात भर
सोई नहीं
रंग
सपनींले हुए हैं
जब कभी
देह ढोते ही गए अपने सभी।
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(मेरे नवगीत संग्रह ‘‘आंसू बूंद चुए’’ से)