दस्तक
- डॉ शरद सिंह
उसने
दरवाज़े के माथे को
अपनी हथेली की
थाप से चूमा
और
एक दस्तक रख दिया
काश!
उसने द्वार खुलने तक
की होती प्रतीक्षा
तो व्यर्थ न जाती
दस्तक,
कब्ज़ों और सिटकनी की
सिहरन
और
निराश न होतीं
वे सारी आशाएं
जो बंद द्वार के भीतर
बाट जोह रही थीं
एक अदद
दस्तक की
द्वार खुलने पर
उसका न होना
छोड़ गया अंधेरा
भरी दोपहर,
भरपूर उजाले में
शायद उसे पता नहीं
दस्तक का
अपना कोई
वज़ूद नहीं होता,
होता है वजूद तो
उस हथेली का
जो
जुड़ी होती हैं
कांपती उंगलियों,
चंद सांसों,
एक धड़कते दिल
और
प्रेम के ढाई आखर से।
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