14 November, 2024

"सांची कै रए सुनो, रामधई" - डॉ (सुश्री) शरद सिंह नयी बुंदेली गजल संग्रह

प्रिय मित्रो, एक ख़ुशख़बरी...
मेरा बुंदेली ग़ज़ल संग्रह "सांची कै रए सुनो, रामधई!" प्रकाशित हो गया है...😊
यह बुंदेली का मेरा प्रथम गजल संग्रह है और इसे प्रकाशित किया है जेटीएस पब्लिकेशन दिल्ली ने। JTS Publication के भाई Rajiv Sharma  जी का हार्दिक आभार कि उन्होंने निर्धारित समय से पूर्व और बेहतरीन साज-सज्जा में इसे प्रकाशित किया🙏
    🚩 मैं अत्यंत आभारी हूं भाई डॉ बहादुर सिंह परमार जी की तथा भाई डॉ  पुनीत बिसारिया जी की जिन्होंने अपनी सघन व्यस्तताओं से समय  निकालकर पुस्तक की भूमिकाएं लिखीं। ये दोनों वे व्यक्तित्व हैं जो बुंदेली के विकास के लिए निरंतर कटिबद्ध हैं तथा अनेकानेक के प्रेरणास्रोत हैं। 🙏
    🚩"इस संग्रह में मेरी ग़ज़लें आम बोलचाल की बुंदेली में हैं। मुझे आशा है कि इसे सभी का स्नेह, आशीर्वाद मिलेगा🙏🌹 
    🚩 संग्रह के बारे में बाकी बातें फिर कभी फिलहाल इतना ही कहूंगी कि जितना मुझे हिंदी से प्यार है उतना ही बुंदेली से भी प्यार है 🌹❤️🌹

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12 November, 2024

शायरी | रास्ते | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

ये   लम्बे   रास्ते   थकते  नहीं क्यों ?
इन्हें मंजिल कभी मिलती नहीं क्यों?
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

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03 November, 2024

शायरी | भरोसा | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

हर भरोसे से भरोसा उठ गया है
रोज़  तेरा   पैंतरा  होता  नया है
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

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31 October, 2024

हम दिवाली के दिए बनकर जलेंगे.. - - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं 🙏

घोर तम में भी न हम गुम हो सकेंगे। 
हम दिवाली के दिए बनकर जलेंगे ।
हो भले ही छल का जल खारा बहुत 
या,  हो गहरी  स्वार्थ की धारा बहुत आस्था   के  सीप  का  मोती  बनेंगे 
हम दिवाली के दिए बनकर जलेंगे ।
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

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04 October, 2024

कविता | स्त्री पाठ 1 | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

स्त्री पाठ
    - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
एक स्त्री में
कभी पढ़ो 
एक स्त्री को
दुर्गा सप्तशती की तरह
तब एहसास होगा 
एक स्त्री में 
देवीत्व का।

कभी देखो एक स्त्री को
मंगलदीप में प्रदीप्त
बाती की तरह
तब दिखेगा रूप
एक स्त्री में 
देवीत्व का।

कभी सोचो एक स्त्री को
अपने पवित्र विचारों 
की तरह
तब महसूस होगा
एक स्त्री में
देवीत्व का।

किसी एक नवरात्रि में
पहचानना सीखो तो
एक स्त्री को
पुरुषवादी चश्मा उतार कर।

तब कहना-
'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः'।।

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01 October, 2024

कविता | ख़ुद को बचा सकती थी वो | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

कविता
 ख़ुद को बचा सकती थी वो
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

कॉल सेंटर से
देर रात
ड्यूटी कर
लौटती जवान लड़की
कैब से उतर कर
नहीं तय सकी
अपने घर का
बीस क़दम का फ़ासला
धुंधले लैम्पपोस्ट तले
जकड़ लिया
चार हाथों ने उसे
बढ़ती चली गई
घर से उसकी दूरी
वह चींख नहीं सकी
पर
याद आए उसे
कुछ पैंतरे
जो देखे थे उसने
इंटरनेट पर
किया था अभ्यास
अपने कमरे में

लड़की ने बटोरा साहस
चाहती थी बचना वह
तभी थप्पड़ मारते 
दांत किटकिटाते 
गालियों की बौछार करते 
चींखा एक दरिंदा-
"लड़की हो कर 
मुझसे टकराएगी?
@#@ तेरी ये हिम्मत!"

"लड़की हो कर..." 
सुनते ही
टूट गई 
उस लड़की की हिम्मत
सारे प्रतिबंध 
इन्हीं शब्दों के साथ  
उसने सुने थे बचपन से
यदि सारे प्रतिबंध 
याद न आते उसे
न दबाव बनाते  
उसके कमज़ोर
यानी लड़की होने का
तो उस रात
ख़ुद को बचा सकती थी वो।
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24 September, 2024

शायरी | फ़लसफ़ा | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

वक़्त का फ़लसफ़ा भी पढ़ना था
पर  अंगूठा छाप  रह गए  हम तो।
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

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