27 July, 2025

मेरे दो दोहे - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

मेरे दो दोहे....
तेरी आंखों से  बही, भीगे   मेरे   गाल।
अश्रु-धार करने लगी, ऐसे विकट कमाल।।1

तेरे-मेरे बीच की  दूरी,  सौ-सौ  मील।
फिर भी किरणें हैं यहां, जले वहां कंदील।।2
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

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07 July, 2025

लिहाज़ है समझो | शायरी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

मेरी ख़ामोशी 
लिहाज़ है समझो
लिहाज़ उतरा तो
बेपर्दा हो जाएंगे कई।
         - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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05 July, 2025

प्रेम कविता | प्रेम करते हो तो | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

प्रेम कविता
प्रेम करते हो तो
      - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

राग मल्हार हो
या मालाहारी*
अपने भीगे स्वरों से
करता है स्वागत
जल की उन बूंदों का
जो उठी थीं सागर से
उन्मुक्त, अतल, अनंत 
गगन नापने
किंतु न जा सकीं आगे 
क्षोभमंडल** से
हवाओं की 
तनी हुई भृकुटी ने
रोक लिया रास्ता
 
भले ही 
बूंद़ों ने गोपियों-सा 
संगठित हो 
किया था रार भी
चमकी थीं 
अनेक बिजलियां
फिर समझ गई बूंदे़ं
लौटना होगा वापस 
धरती पर
तो क्यों न लौट जाए
अपने मूल स्वरूप में
- यही सोचा बूंद ने 
और बरस पड़ीं 
जंगल, पहाड़, नदियों, 
बस्तियों और सागरों पर

कण-कण ने 
लगा लिया गले
उन बूंदों को
क्योंकि 
कोई मुखौटा 
कोई भी छल-छद्म 
या कपट नहीं,
प्रेम तो चाहता है सदा
पारदर्शी जल जैसी 
मौलिकता 
अपने अस्तित्व में

यही तो कहती है 
बारिश की हर बूंद-
प्रेम करते हो तो
मत झिझको लौटने से
बस, रहो निष्कपट
निष्ठावान और
विश्वसनीय
प्रिय के प्रति।
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* कर्नाटक संगीत का राग
**Troposphere
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04 July, 2025

प्रेम कविता | जिसे कहते हैं प्रेम | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

जिसे कहते हैं प्रेम
      - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

पनीली भोर में
लौह दरवाज़े के
एक खांचे में बैठी
कलछौंही 
नन्हीं चिड़िया का स्वर
जब लगे
राग आसावरी-सा

उनींदे नेत्रों में
कौंध जाए
सबसे प्यारा पुष्प
या अलसाई देह पर
लिपटती-सी लगें
अपराजिता की बेलें

मानो जल उठे
सहसा
कपूर, गुग्गुल और
लोबान 
एक साथ
और
महक उठे
समूचा कमरा 
किसी पवित्र
पूजा स्थल-सा

खिंच जाए मन में
आकांक्षाओं का 
इन्द्रधनुष
सात रंग नाप लें
धरती को 
अपने सप्तपद से
तो समझो
चल कर दहलान से
खिड़की को फांद कर
साथ रहने आया है
निराकार 
निर्गुण-निर्ब्रह्म
जल और वायु के समान
संवेदनीय अदृश्य
वह
जिसे कहते हैं प्रेम।              
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03 July, 2025

कविता | प्रेम झूमेगा वहीं | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

प्रेम कविता
प्रेम झूमेगा वहीं
           - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

काई जमी
खपरैलों के बीच से
टपकती बूंदें
विवश कर देती हैं
छत पर चढ़ने
जोखिम लेने को

फिर से जमाते हुए
खपरैलों को
सहसा
बज उठता है मृदंग
धड़कनों में
खनखना उठते हैं मंजीरे
कानों में
गूंज उठती है
प्रेमधुन

जब कोई 
मिठास भरे स्वर में
कहता है अचानक -
'लग रही हो अच्छी तुम
छाजती हुई खपरैल
लेकिन करने दो मुझे
डर है कहीं गिर न जाओ!'

अपनत्व भरे
एक चिंतातुर स्वर में
सिमट आती हैं
वे सारी बूंदें
जिन्होंने भिगोया था
सारी रात
टप-टप टपक कर
खपरैल की दरारों से

देखो तो!
प्रेम ने 
ढूंढ लिया रास्ता
जहां वह होगा मुखर
शब्दों से कहीं अधिक
संकेतों में
बचकर सबकी 
दृष्टियों, कुदृष्टियों से

तभी, एक पल्लू का छोर
दबेगा 
कांपते कोमल अधरों में
और
एक गमछा
सरसराएगा बलिष्ठ
कांधों पर

प्रेम झूमेगा वहीं
मल्हार गाता 
भीगता
खपरैल की दरारों को
अगले दिन के लिए
बचा कर सहेजता
मिलन-सेतु बनाता
पुनः
पुनः
पुनः
पुनरावृत्ति के लिए।        
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02 July, 2025

प्रेम कविता | इतराता है प्रेम | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

प्रेम कविता
इतराता है प्रेम
           - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

उसके मैले चेहरे पर
तैर जाती है मुस्कान
खिंच जाती है
आंखों की कोर
रक्त की तरंगे
नीचे से ऊपर 
ग्रीवा को छूती हुईं
दौड़ जाती हैं
ललाट तक

कांपता है
हाथ का कटोरा
खनकते हैं चंद सिक्के
किन्तु अधरों से
नहीं फूटते स्वर

टोंकता है मस्तिष्क 
- 'मांग तू दाता के नाम'
पर मन
देता है उत्तर-
'मैंने प्रेम रतन धन पायो!'

उस पल
इतराता है प्रेम
खुद पर, 
जब गुज़रता है
एक भिखारी के
हृदय से हो कर
और
पाता है
मधुर संकेत
एक भिखारिन से

प्रेम के लिए
न कोई अस्पृश्य
न कोई रंक
क्योंकि
प्रेम जानता है
पंच तत्वों की भांति 
अपनी अनिवार्यता।          
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27 June, 2025

कविता | प्रेम सिखा देता है | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

प्रेम सिखा देता है
           - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

वट वृक्ष की देह पर
बांधा गया
कच्चे सूतवाला
मनौती का धागा
अखिल ब्रम्हांड के
सुदृढ़ विश्वास को 
समेटे रहता है
अपने कमजोर
कोमल रेशों में

तुलसी-चौरे पर
जलाया गया 
माटी का 
नन्हा दीप
असंख्य रश्मियों से
आमंत्रित करता है
शुभ और मंगल को

आम्रपत्रों का तोरण
करता है सुनिश्चित
प्रतीक्षित ईष्ट के 
शुभागमन को

वह नहीं समझ सकता
इन चेष्टाओं के 
तत्व को, सत्व को
जिसे समझ ही न हो
प्रेमासिक्त विश्वास की,
जबकि
प्रेम सिखा देता है 
देवताओं को भी
रीझना, सींझना
और बन जाना
महारास रचाती
आत्मा का 
परमात्मा।      
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