24 June, 2025

प्रेम कविता | उसे पढ़ता है प्रेम | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

प्रेम कविता
उसे पढ़ता है प्रेम
      - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

जुड़ी रहती है यादें 
अपने पुराने घर से
भले ही 
वह रहा हो
किराए का
पर 
वहां रहने का एहसास 
उस वक्त के लिए 
उसे अपना बना देता है
जैसे 
कोई सूखा हुआ फूल 
मिल जाता है 
अचानक 
दबा हुआ 
किसी पुरानी किताब में
फूल पाने का 
गुज़रा हुआ समय
हो जाता है चैतन्य 
भर जाता है ऊष्मा से
भले ही वह समय 
और वह 
फूल देने वाला भी 
अपना नहीं हुआ
लेकिन
पुराना घर हो 
या सूखा हुआ फूल
हमेशा लिखते हैं 
यादों की नई इबारत
उसे पढ़ता है प्रेम 
बड़े प्रेम से
वर्षों बाद भी।
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23 June, 2025

कविता | एक प्रेम कथा | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

एक प्रेम कथा
 - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

निर्जन अरण्य में
अर्द्ध रात्रि के
पूर्ण चंद्र की
चमकीली रोशनी में
तैरती मंद समीर
जब छूती है
उस पेड़ के तने को
जिस पर
दोपहर की 
कुनकुनी धूप में
कुछ गायों सहित
राह भटके 
अनपढ़ चरवाहे ने
उकेरा था एक हृदय

स्पर्श करते ही
वह हृदय-आरेख
बज उठती है
सन्नाटे की बांसुरी
गूंज उठती है
एक प्रेम कथा
उस अरण्य में
किसी पवित्र 
मंत्रोच्चार की तरह।       
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21 June, 2025

कविता | प्रेम ने उसे जिया है | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

प्रेम कविता
 
प्रेम ने उसे जिया है
        - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

जल की अपरिमित राशि
बनाती है नदी,
 नदी नहीं गढ़ती
जल की धाराएं

उत्तुंग शिखर पर्वत
नहीं चुनते
भूमि को,
भूमि करती है तय
पर्वत और
उसकी ऊंचाई

प्रत्येक प्राणी को
जीता है जीवन,
प्राणी जीवन को नहीं

भ्रमर नहीं चुनता
केशर
परागण के लिए,
केशर के
कण-कण चुनते हैं
भ्रमर को

इसी तरह
प्रेम चुनता है
अपने योग्य व्यक्ति
व्यक्ति नहीं चुनता
प्रेम को

जो सोचता है
उसने जी लिया प्रेम को
है वह भ्रम में
प्रेम ने उसे जिया है
उसने प्रेम को नहीं!          
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19 June, 2025

कविता | प्रेम की पराकाष्ठा | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

प्रेम की पराकाष्ठा
   - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

आंखों सामने
वृहद भीड़
परस्पर बातों का कोलाहल
ध्वनियां... ध्वनियां... 
असंख्य ध्वनियां... 
निरंतर कानों के
पर्दों से टकरातीं
मानो
हहराते समुद्र की
तूफानी लहरें
टकरा रही हों
तट की कृत्रिम
चट्टानों से

या
एक झरना 
गिर रहा हो
सैंकड़ों फीट की
ऊंचाई से
झरझराता हुआ
शोर की सप्तधाराओं को
उपजाता हुआ

तेजगति हवाएं
बजाती हों सीटियां
अरण्य से हो कर
अट्टालिकाओं तक
छू कर निकलती हों
गरदन की
नाज़ुक शिराओं को

फिर भी
प्रतीत हो ऐसा
कि विचरण कर रहा है मन
अंतरिक्ष की
ध्वनि-शून्यता में
तो समझो,
प्रेम की पराकाष्ठा 
पर जा पहुंचीं हैं
अव्यक्त भावनाएं।
     - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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18 June, 2025

कविता | पुराना गोपन प्रेम | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

कविता 
पुराना गोपन प्रेम
     - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

आलमारी के 
सबसे ऊपरी तल्ले में 
रखे कीमती
पर न पहने जाने वाले
कपड़ों में
कभी-कभी 
जरूरी हो जाता है
फिनायल की 
गोलियां रखना
नहीं तो 
बंद अलमारी की सीलन
अपने पांव फैला लेती है 
कपड़ों की तहों में

उन तहों के बीच 
 कुछ यादें 
मिल जाती हैं अचानक
भीग जाता है मन
छूते ही 
पुराने रुमाल में लिपटे 
कागज की तहों में
कुछ रूमानी शब्दों को
 जो है अब बेमानी

गोया खुद ही छुप गया हो 
कपड़ों की तहों के बीच
अतीत की गर्माहट
सियाही की सरसराहट लिए
एक किताब में दबने से
आई हुई मोड़ों में
वर्षों से रह रहा है  
सब की दृष्टि से छुप कर 
पुराना गोपन प्रेम
इसीलिए तो आज तक  
फाड़ा नहीं जा सका
निर्जीव-सा किंतु स्पंदित
वह कागज का टुकड़ा

विषाक्त फिनायल की 
गोलियों के साथ
दिन, सप्ताह, वर्ष
व्यतीत करते हुए 
जीवित है आज भी
क्योंकि 
प्रेम कभी मरता 
जीता रहता है 
नितांत गोपनीयता के साथ
व्यक्ति की अंतिम सांस तक।
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कविता | इतराता है प्रेम | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

इतराता है प्रेम
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

होती है अनेक
औचित्यहीन चेष्टाएं
कभी चिटकनी खोलना 
कभी टिक जाना 
दरवाजे से
और फिर अचानक 
दरवाजा लगाकर 
चिटकनी चढ़ा देना

यूं ही 
महसूस करना 
कि कोई सामने है
बालों को संवारना 
होठों पर 
मुस्कुराहट की 
रेखा का दौड़ जाना

यही तो है 
जागते स्वप्न का है 
लालित्य
जो अदृश्य को भी 
दृश्य में ढाल कर
खेलता है 
चेतना के अवचेतन से

और ठीक उसी समय 
इतराता है प्रेम 
अपनी अनंत, असीम
सम्मोहन शक्ति पर।      
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17 June, 2025

कविता | भोर का प्रेम | (सुश्री) शरद सिंह

भोर का प्रेम 
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

पक्षियों के कलरव से
जागती भोर
तोड़ती है
सूरज की अंगड़ाइयों को
गति पकड़ने लगती है
हवा भी

घरों के भीतर
खनखना उठते हैं बरतन
जल उठते हैं चूल्हे
पतीलियों में उबलती 
शक्कर, चायपत्ती
दूध और इलायची के संग
चाय छनती है
भाप उठती 
हो जाता है शुरू
कोलाहल

ठीक उसी समय
आता है प्रेम चाय में 
घुलकर
जहां मुस्कुरा कर 
परस्पर
एक-दूसरे को
थमाया जाता है प्याला
पारिवारिक भीड़ के बीच
प्याले को थामती हुई उंगलियां
चुपके से दबा देती हैं 
दूसरे की उंगलियों को
कौंध जाती है बिजली सी
दोनों की देह में
प्रेम मुस्कुराता है 
शालीनता से

किसी एक घर में
प्रेम और अधिक 
मुखर हो जाता है
और चाय से भी पहले 
शयनकक्ष में प्रवेश कर 
बालों को सहलाता है
माथे पर 
कुनकुनी धूप के 
एक गहरे चुंबन के साथ
जागता है

सो, भोर होते ही
जीवन में 
समाने लगता है प्रेम 
अपनी पूरी 
विविधता के साथ

बस, कोई उसे 
महसूस कर पाता है 
और कोई नहीं।
      - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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