दुआ है...
- डॉ शरद सिंह
ज़िंदगी
बन जाए जब एक बोझ
सांसे हो जाती हैं और चौकन्नी
चिपट जाती हैं सीने से
नहीं चाहती थमना
धड़कने
हो जाती हैं सजग
किसी भी क़ीमत पर
न रुकने को तैयार
जब देह ही
निभाने लगे शत्रुता
भागने लगे
निरुद्देश्य जीवन के पीछे
उस पर
कोई गिनाता रहे
ग़लतियां,
कोई फैलाता रहे
भ्रमजाल
सुरक्षित भविष्य के
सपनों के साथ
मैचमेकर बन कर
गोया
एक का एकाकीपन
मनोरंजन हो दूसरे के लिए
अपनत्व की शून्यता
झूठी मुस्कुराहटों के तले
दबी रहेगी कब तक
बस दुआ है कि
पत्थर हो जाए दिल
या
बंद कर दे धड़कना
ठीक इसी समय
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जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (१४-०७-२०२१) को
'फूल हो तो कोमल हूँ शूल हो तो प्रहार हूँ'(चर्चा अंक-४१२५) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में बुधवार 14 जुलाई 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
मर्मस्पर्शी
ReplyDeleteक्या कहिये !
ReplyDeleteबस समझिये !
बहुत संवेदनशील रचना
ReplyDeleteज़िंदगी
ReplyDeleteबन जाए जब एक बोझ
सांसे हो जाती हैं और चौकन्नी
सौ फीसदी सही..
आभार..
एकाध बार
ReplyDeleteवर्षा दीदी की
अनछुई ग़ज़ल पढ़वा दीजिए
सादर...
कहीं गहरे तक उतर गई आपकी रचना।मर्मस्पर्शी।
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी सृजन
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी !
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