15 October, 2025

कविता | #सच 3 - डॉ (सुश्री) शरद सिंह


कविता | #सच 3
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

हम 
इतनी शिद्दत से 
ढूंढते रहते हैं
सुख
कि 
पता ही नहीं चलता  
कब 
न्योता दे बैठते हैं
दुख को।
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14 October, 2025

कविता | #सच 2 | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

कविता | #सच 2
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

एक टूटे हुए कप की तरह 
खंडित ज़िन्दगी
अपने वज़ूद में 
होती है 
और नहीं भी
कबर्ड से कूड़ादान 
तक की यात्रा
किसी शवयात्रा से
कंम नहीं
यह जानता है 
वह टूटा हुआ कप
जो किसी हाथों में सजता था 
होठों से लगता था
मगर खंडित होते ही 
हो गई 
उसकी उपयोगिता भी ख़त्म
ठीक ऐसे ही 
वह खण्डित ज़िन्दगी भी
रहती है फ़िजूल
बावजूद जीए जाने के।
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13 October, 2025

कविता | #सच 1 | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

कविता | #सच 1
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

डूबने के लिए
एक धक्का
काफ़ी है
टूटने के लिए
एक झटका
काफ़ी है
यह जानता है हमेशा 
डूबाने वाला 
तोड़ने वाला
डूबने या टूटने वाला नहीं।
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20 August, 2025

शायरी | तिजारत | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

अर्ज़ है-
उठाना   गिराना,  गिराना   उठाना
यही   खेल   रचता  रहा है ज़माना
मुहब्बत  के  रिश्ते  तिजारत  हुए हैं
सभी  चाहते  हैं  नफ़ा  ही  कमाना
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

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27 July, 2025

मेरे दो दोहे - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

मेरे दो दोहे....
तेरी आंखों से  बही, भीगे   मेरे   गाल।
अश्रु-धार करने लगी, ऐसे विकट कमाल।।1

तेरे-मेरे बीच की  दूरी,  सौ-सौ  मील।
फिर भी किरणें हैं यहां, जले वहां कंदील।।2
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

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07 July, 2025

लिहाज़ है समझो | शायरी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

मेरी ख़ामोशी 
लिहाज़ है समझो
लिहाज़ उतरा तो
बेपर्दा हो जाएंगे कई।
         - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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05 July, 2025

प्रेम कविता | प्रेम करते हो तो | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

प्रेम कविता
प्रेम करते हो तो
      - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

राग मल्हार हो
या मालाहारी*
अपने भीगे स्वरों से
करता है स्वागत
जल की उन बूंदों का
जो उठी थीं सागर से
उन्मुक्त, अतल, अनंत 
गगन नापने
किंतु न जा सकीं आगे 
क्षोभमंडल** से
हवाओं की 
तनी हुई भृकुटी ने
रोक लिया रास्ता
 
भले ही 
बूंद़ों ने गोपियों-सा 
संगठित हो 
किया था रार भी
चमकी थीं 
अनेक बिजलियां
फिर समझ गई बूंदे़ं
लौटना होगा वापस 
धरती पर
तो क्यों न लौट जाए
अपने मूल स्वरूप में
- यही सोचा बूंद ने 
और बरस पड़ीं 
जंगल, पहाड़, नदियों, 
बस्तियों और सागरों पर

कण-कण ने 
लगा लिया गले
उन बूंदों को
क्योंकि 
कोई मुखौटा 
कोई भी छल-छद्म 
या कपट नहीं,
प्रेम तो चाहता है सदा
पारदर्शी जल जैसी 
मौलिकता 
अपने अस्तित्व में

यही तो कहती है 
बारिश की हर बूंद-
प्रेम करते हो तो
मत झिझको लौटने से
बस, रहो निष्कपट
निष्ठावान और
विश्वसनीय
प्रिय के प्रति।
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* कर्नाटक संगीत का राग
**Troposphere
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