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09 October, 2021
असंभव-सा संभव | कविता | डॉ शरद सिंह
असंभव-सा संभव
- डॉ शरद सिंह
किसी भी समय
उठने लगती हैं
सीस्मिक तरंगें
कांपने लगती है
भावनाओं की सतह
सरकने लगती हैं
विश्वास की
टेक्टोनिक प्लेट्स
मेरी सांसोंं का
सिस्मोमीटर
निरंतर बनाता है ग्राफ
धड़कन के
रिक्टर स्केल पर
और करता है कोशिश
नापने की
पीड़ा से उपजे
भूकंप की तीव्रता को
दौड़ती है तेजी से सुई
और
लॉगरिथमिक प्वाइंट
दर्शाता है तीव्रता
कभी सात
तो कभी दस
यह असंभव-सा
संभव,
करता है
विचलित मुझे कि
विध्वंस के
अंतिम बिन्दु पर
पहुंच कर भी
बची हुई है
मेरे अस्तित्व की धरती
ये तो हद है-
सोचने लगे हैं
मेरी पीड़ा के
सिस्मोलॉजिस्ट
हैरत तो होगी ही
महाविनाश से
गुज़र कर भी
कोई बचता है भला?
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08 October, 2021
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04 October, 2021
छापामार उदासी | कविता | डॉ शरद सिंह
03 October, 2021
सपन कपासी | नवगीत | डॉ शरद सिंह
नेह पियासी
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
मीलों लम्बी
घिरी उदासी
देह ज़रा-सी।
कुर्सी, मेजें,
घर, दीवारें
सब कुछ तो मृतप्राय लगें
बोझ उठाते
अपनेपन का
पोर-पोर की तनी रगें
बंज़र धरती
नेह पियासी
धार ज़रा-सी।
गलियां देखें
सड़के घूमें
फिर भी चैन न मिल पाए
राह उगा कर
झूठे सपने
नई यात्रा करवाए
रोती आंखें
सपन कपासी
रात ज़रा-सी।
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