29 November, 2017
28 November, 2017
जाड़े में सुकून के पल ... डॉ शरद सिंह
Winter ... Poetry of Dr Miss Sharad Singh |
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जाड़े में
सुकून के दो पल
रजाई, कम्बल या
शॉल में लिपटे हुए
हरगिज़ नहीं होते,
नहीं होते हैं मेरे लिए
वे दो पल
अलाव तापने वाले
या फिर
मोबाईल फोन पर बतियाते
कानों को गरमाने वाले,
एक कप चाय
और एक किताब के साथ
दुबके हुए दो पल
वही तो हैं सबसे सुकून के
मेरे लिए।
- डॉ शरद सिंह
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27 November, 2017
स्वप्न की रजाई ... डॉ शरद सिंह
Winter ... Poetry of Dr Miss Sharad Singh |
जाड़े की रात ने
सांकल खटकाई
शीत भी दरारों से
सरक चली आई
पक्के मकानों में
उपले, न गोरसी
हीटर के तारों से
लाल तपन बरसी
नींद मगर चाहे
स्वप्न की रजाई
और
कम्बल के धागों में
प्रीत की कताई।
- डॉ शरद सिंह
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25 November, 2017
जाड़े की रात. .. डॉ शरद सिंह
Winter ... Poetry of Dr Miss Sharad Singh |
जाड़े की रात
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कमरे के बाहर
सूनी सी सड़कों पर
टहल रही
जाड़े की रात
बर्फीला सन्नाटा
देह को जमाए
लेकिन है देता
गरमाहट ढेर सी
यादों के कोट में
लगा हुआ
प्रेम का अस्तर।
- डॉ शरद सिंह
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24 November, 2017
इक अलाव जलने दो ... डॉ शरद सिंह
Winter ... Poetry of Dr Miss Sharad Singh |
इक अलाव जलने दो
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जाड़े की रात
ठिठुराते
बड़े पहर
चलने दो
जीवन में
गरमाहट
लाने को
यादों का
इक अलाव
जलने दो !
- डॉ शरद सिंह
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21 November, 2017
जाड़े का दिन .... डॉ शरद सिंह
20 November, 2017
14 November, 2017
लावा .... डॉ शरद सिंह
Poetry of Dr (Miss) Sharad Singh |
लावा
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सीने में
धैर्य की टेक्टोनिक प्लेट्स
टकरा रही हैं आपस में
दरकने को आतुर है
धरती होंठों की
अनुभवों के
मोटे क्रस्ट के नीचे
उबल रहा है लावा
इन दिनों
गोया मुझमें मौजूद है
एक धरती
जिसे हो चला है
असहनीय
तुम्हारा भीतरघात-सा
अपर्यावर्णीय आचरण।
- डॉ शरद सिंह
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10 November, 2017
07 November, 2017
मन एक पंछी .... डॉ शरद सिंह
Poetry of Dr (Miss) Sharad Singh |
मन एक पंछी
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मन
एक पंछी ही तो है
डोलता है, फुदकता है
हो जाता है उदास
सूखी डालियों पर
और खिल उठता है
किसी फूल की तरह
हरी पत्तियों के बीच
मन का मधुर स्वर
मन ही सुनता है
क्यों कि मन
वह पंछी नहीं
जो दिखे सबको, रिझाए सबको, मोहे सबको
मन एक पंछी है
निरा व्यक्तिगत
नितान्त अपना
किसी गोपन की तरह।
- डॉ शरद सिंह
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03 November, 2017
वह अपनापन .... डॉ शरद सिंह
Poetry of Dr (Miss) Sharad Singh |
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मेरी स्मृतियों का वह गांव
मुझे पुकारता है प्रतिदिन
जहां -
लम्बी, पतली, कच्ची सड़क के
दोनों ओर थे ऊंचे-ऊंचे पुराने वृक्ष,
बिजली की प्रतीक्षा में खड़े
तारविहीन खम्बे,
कुछ खपैरली मकान,
मकानों में छोटी-छोटी खिड़कियां
मंझोले दरवाज़े
गोबर से लिपे आंगन
और
एक अहसास अपनेपन का ।
वह गांव आज भी वहीं हैं
आ गई है बिजली भी
लेकिन नहीं है तो वे सारे वृक्ष
सागौन की गंध से तर वह सोंधापन
और वह अपनापन
ये वो गांव नहीं जो मुझे बुलाता है
प्रतिदिन ।
- डॉ शरद सिंह
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आ गई है बिजली भी
लेकिन नहीं है तो वे सारे वृक्ष
सागौन की गंध से तर वह सोंधापन
और वह अपनापन
ये वो गांव नहीं जो मुझे बुलाता है
प्रतिदिन ।
- डॉ शरद सिंह
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