30 September, 2021

डॉ शरद सिंह की कविता "दूर, बहुत दूर" का पंजाबी में अनुवाद प्रकाशित

मेरी कविता "दूर, बहुत दूर" का पंजाबी अनुवाद "प्रतिमान" जुलाई-सितंबर 2021अंक में प्रकाशित हुआ है जिसके लिए मैं पंजाबी एवं हिन्दी के चर्चित साहित्यकार डॉ अमरजीत कौंके की अत्यंत आभारी हूं🙏
हिन्दी भाषी मित्रो के लिए अपनी मूल हिन्दी कविता भी यहां दे रही हूं-
दूर, बहुत दूर
       - डॉ शरद सिंह

घर की क़ैद से निकल कर
दूर, बहुत दूर निकल जाने की इच्छा
बलवती होने लगी है
इन दिनों

अख़बारों की
कराहती सुर्खियों से दूर
मृतक आंकड़ों की
चींखों से दूर
सांत्वना के निरंतर
दोहराए जाने वाले
बर्फीले शब्दों से दूर

अस्पताल परिसर की
यादों से दूर
बंद ग्रिल के पीछे
कोविड वार्ड के
ख़ौफ़नाक अहसास से दूर
आधी रात के बाद
फ़ोन पर आई
उस हृदयाघाती सूचना से दूर

शासन तंत्र की
ख़ामियों से दूर
घोषणाओं की
झूठी उम्मींदों से दूर
जनता की
आत्मकेन्द्रियता से दूर
प्रजातंत्र के राजा की
नींदों से दूर

कहीं दूर...
बहुत दूर
जहां सागौन का हो जंगल
संकरी पगडंडी
एक पतली नदी
एक झरना
एक कुण्ड
देवता विहीन
प्राचीन मंदिरों के अवशेष
बंदरों की हूप
और पक्षियों की आवाज़ें

वहां
जहां मैं प्रकृति में रहूं
और प्रकृति मुझमें
न कोई बनावट
न धोखा, न छल
न पंजा, न कमल
ले सकूं खुल कर सांस
प्रदूषण रहित हवा में
न ढूंढना पड़े जीवन
वैक्सीन या दवा में

शायद तब मैं
जी लूंगी
एक बार फिर
जी भर कर।
     ------------

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27 September, 2021

कविता एक नदी | कविता | डॉ शरद सिंह

कविता एक नदी
      - डॉ शरद सिंह

नदी 
पहाड़ों के अपने 
उद्गम से निकल कर
बहती है
पठारों की ओर
अनगिनत घाटों में
स्नान करते हैं लोग
उसके जल में
पाप धोते
मोक्ष प्राप्त करते
खेती-किसानी
और सब्ज़ियां उगाते
खुश रहते हैं
उस बेघर हुई
नदी को देख कर
जिसे है पता कि
वह कभी नहीं 
लौट कर
देख सकती
अपने घर को-
अपने उद्गम को

नदी से
जब छूटता है उसका
उद्गम स्थल
तब से वह
बन जाती है प्रवाह
अन्य के जीवन का आधार
संस्कृति का विस्तार
विछोह की पीड़ा से उपजा
एक सनातन संसार

नदी 
कुछ नहीं करती स्वयं
बाढ़, उफान, शांति
होता है स्वतः
सब कुछ

यह जाना मैंने
तब
जब
मेरा रुदन
जब उतरा 
मेरी कविता में
और वह 
सिर्फ़ मेरा नहीं रहा,
एक नदी बन गया
न चाहते हुए भी।
       -----------

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25 September, 2021

यही तो होता है | कविता | डॉ शरद सिंह

यही तो होता है

- डॉ शरद सिंह

कुछ शब्दों को
पकड़ते ही
पसीजने लगती है हथेली
फड़कने लगती हैं
धमनियां
धौंकनी बन जाता है
हृदय,
हो जाता है तीव्रतर 
स्पंदन
चौड़े हो जाते हैं नेत्र
कांपते हैं होंठ
ठिठक जाती हैं
ध्वनियां,
कुंद हो जाती है बुद्धि
जाग उठती है हठधर्मिता
बढ़ जाती है
वर्चस्व की भावना
वे मायावी शब्द
जकड़ लेते हैं
अपने इंद्रजाल में
फिर नहीं दिखता
उनके सिवा कुछ भी
बढ़ जाती है आत्ममुग्धता

यही तो होता है
प्रेम,
युद्ध
और
राजनीति में,
सब कुछ
समझते हुए भी
समझ से परे
नासमझी की हद तक।
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24 September, 2021

तनहाई | ग़ज़ल | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

  ग़ज़ल
           तनहाई है
          - डॉ शरद सिंह
चौतरफा   सन्नाटा है,    तनहाई है 
देखो, क़िस्मत कहां मुझे ले आई है 

दीवारों से बातें करना कठिन हुआ
मेरे  दुखड़े  से  छत  भी   घबराई है 

हरपल आंखों में आंसू भर आते हैं
बेबस दिल  की ये कैसी भरपाई है

जिसने, जिसने मुंहफेरा है जाने दो
नाम लिया तो उनकी ही रुसवाई है

अरमानों के नेज़े  आंधी  से  चलते
जिस्म को चुभने वाली हर पुरवाई है

झूठे हर्फ़ों  की  इतनी  भरमार हुई
स्याही भी काग़ज़ से अब शरमाई है

"शरद" हौसले की पतवारें साबुत हैं
कश्ती   भर   चट्टानों  से  टकराई है
                 --------------  
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19 September, 2021

वह नहीं आई | कविता | डॉ शरद सिंह

वह नहीं आई
      - डॉ शरद सिंह

वह गाय
जो रोज़
मेरे घर के दरवाज़े पर
आ खड़ी होती
करती जुगाली
उम्मीद करती
कुछ छिलके पाने की
एकाध बासी रोटी पाने की
आज वह नहीं आई

मैं जानती हूं
उसका है कोई मालिक 
पूरा का पूरा कौलिक

दुह कर दूध
भगा देता है 
अपने घर से,
शाम के बाद ही
लौट पाती है वह
 
सुबह फिर वही
दिनचर्या

दिन भर 
यहां-वहां डोलती
मार खाती
अपने बड़े से शरीर को
दो-चार टुकड़ों पर जिलाती,
शायद
अपने गाय होने को कोसती
या फिर
'माता' कहे जाने पर
शर्मिंदा होती,
अपनी सुंदर
काली आंखों से देखती
मेरे दरवाज़े जब
गोबर कर जाती
मुझे बेसाख़्ता
झुंझलाहट से भर जाती

पर
आज नहीं आई वह
क्या हुआ उसे?
मालिक ने 
बेच तो नहीं दिया
बूचड़खाने में?
बूढ़ी इंसानी मांए भी
निकाल दी जाती हैं घर से
फिर वह तो
महज़ गाय है
मुझे क्यों होना चाहिए दुखी
उसके न आने पर
मगर
क्या करूं 
बिछड़ने का दर्द
हर बार 
कर देता है विचलित
चाहे मां हो या गाय।
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(*कौलिक=पाखंडी)

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17 September, 2021

फ़िलहाल | कविता | डॉ शरद सिंह

फ़िलहाल
      - डॉ शरद सिंह

रात की 
स्याह दीवार पर
चांद का खूंटा
ढो रहा है
तारों की चुनरी को

आमवस में
ढंक जाता है खूंटा
रह जाती है
दिदिपाती चुनरी

चाहे पूर्णिमा हो
या अमावस्या
आकाश सुरक्षित है
चुनरी के लिए
 जबकि धरती पर
सुरक्षित नहीं चुनरी
शोहदों से
निर्भयाओं के साथ
हो रहे जघन्य अपराध
नहीं रच सकते
भयमुक्त समाज

धरती से 
आकाश ही भला है
फ़िलहाल।
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12 September, 2021

रद्दीवाला | कविता | डॉ शरद सिंह

रद्दीवाला
    - डॉ शरद सिंह

वो चिरकुट-सा कबाड़ी
रोज गुज़रता है
मेरे घर के आगे से,
पुरानी घिसी 
मर्दानी सायकिल चलाता
आवाज़ लगाता
पुकारे जाने पर
मुस्तैदी से रुक जाता

मोल-भाव
सुतली बंधे तराजू के 
खोटे बांट,
जंजीरों की खनखन
अख़बारों के पन्ने
चढ़ते जाते
रद्दी के भाव

मैली ज़ेब से
तुड़े-मुड़े नोट
निकालता, गिनता
थमाता और
समेटने लगता
बासी ख़बरों और 
विज्ञापनों के ढेर को

कैरियर में बंधे बोरों में
ठूंस कर रद्दी
आगे बढ़ जाता
फिर पैडल मारता
फिर आवाज़ लगाता
गोया
ज़िंदगी भी हमें
रद्दी की भांति तौल कर
समेटती जा रही है
सांसों के चंद छुट्टों के बदले
एक कुशल रद्दीवाले की तरह।
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11 September, 2021

मुखौटे | कविता | डॉ शरद सिंह

 
 मुखौटे
- डाॅ शरद सिंह

थक गई हूं अब
सहानुभूति के खोखले शब्दों से
मेरी अपदा में 
अपना अवसर ढूंढने वालों से
वक़्त के साथ चेहरों से
उतरने लगे हैं मुखौटे

‘फ़ोन नहीं उठता’ का
उलाहना देने वाले -
कुछ ने 
मेरी त्रासद रात में
नहीं उठाया था मेरा फ़ोन
नहीं सुनी थी मेरी पुकार
नहीं दिया था
अपनी आवाज़ का भी सहारा

कुछ ने 
मेरे रुदन से 
अपने कानों को बचाने के लिए
मुझे नहीं किया फ़ोन
नहीं बोले दो शब्द
सांत्वना के

कुछ ने 
प्रतीक्षा की मेरे टूटने की
बिखरने की
अपने हाथों, अपना 
अस्तित्व मिटा देने की
अफ़सोस कि मैंने
निराश किया उन्हें

कुछ ने 
बात की
मगर ज़ल्द ही
मान लिया मुझे भी
मृत समान
जिसके ऊपर से गुज़र कर
आगे बढ़ने का 
साफ़ था रास्ता उनके लिए

कुछ ने 
कुछ दूर साथ दिया
फिर डर गए वे 
दुनिया से 
या अपने-आप से,
यह तो वही जानें

कुछ हैं आज भी साथ
बेहिचक, बेझिझक 
निःस्वार्थ (शायद),
छान देगा समय 
उनको भी 
प्रेम और इंसानीयत की 
छन्नी से

देखूंगी
कौन देता है साथ मेरा
मेरे अंत तक
फ़िलहाल उकताने लगी हूं
अपनी बेचारगी से

नहीं चाहिए मुझे दया,
नहीं चाहिए मुझे 
बहादुरी का तमगा,
नहीं चाहिए मुझे 
झूठा अपनापन

इन सबसे-
बेहतर है मेरा अकेलापन
मुझे नहीं जाता छोड़ कर,
मुझसे नहीं बोलता झूठ,
नहीं करता दावे 
मेरे आंसू पोंछने के,
वह मेरे साथ था
उस त्रासद रात भी,
है आज भी
और रहेगा हमेशा
मेरे साथ,
एक सच्चे,
बिना मुखौटे के
इंसान की तलाश में,
तलाश-
जो जानती हूं
कभी पूरी नहीं होगी
इस
बाज़ारवाद की दुनिया में
     -------

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10 September, 2021

फिर भी पधारो गणपति | कविता | डॉ शरद सिंह

फिर भी पधारो गणपति !
           - डॉ शरद सिंह
हे एकदंत पधारो 
इस कराहते घर में
जो जूझ रहा है 
अपनों को खो कर
अपने एकाकीपन से

हे गजानन पधारो
इस रुदन करते आंगन में
जो लौट कर नहीं आ सका
यहां से चिकित्सालय जाने वाला

हे गजकर्ण पधारो
मेरी उस अनंतर्ध्वनि में
जिसमें आज भी प्रश्न
गूंजता है कि
क्यों नहीं सुनी थी
तुमने मेरी पुकार
मेरी चीत्कार

हे भालचंद्र पधारो
मेरे जीवन के 
उस गहन अंधकार में
जिसमें तुम
उजाला नहीं भर सके
और न कभी भर सकोगे

हे बुद्धिनाथ पधारो
जिन्हें बुद्धि दिया तुमने
वायरस बनाने
और फैलाने का
सारी दुनिया को
रुलाने का,
उनकी बुद्धि का
परिणाम देखो
हो गए अनाथों पर
और लगाओ अट्टहास 

भले ही तुमने
नहीं सुना था मेरी पुकार
छीन लिया मुझसे
मेरा सुख-संसार
तुम हो मेरे शत्रुसम
फिर भी पधारो गणपति !
मैं तुम्हें बुलाती रहूंगी
याद दिलाती रहूंगी
कि तुमने ठुकरा दिया था
प्राण-भिक्षा की मेरी
प्रार्थना को,
हां, नहीं सुना था तुमने
फिर भी पधारो गणपति !
      -----------
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09 September, 2021

True relation | Poetry | Dr (Miss) Sharad Singh

True relation
       - Dr (Miss) Sharad Singh

Who stays for whom?  
Who likes whom?  
No one can tell -
who really loves whom?  
Every relationship is selfish There is nothing selfless here.  
They worship the deities Because they want 
boons from them.  
Every need of life has to be fulfilled by parents.  
At the same time, 
parents need support 
from their children in old age. 
 The rest of the relationship makes its own assessment.  
Hope!  
There would have been 
another selfless relationship like a friend in this world.
           ---------------------
#life  #poetry #poetrylovers  #relation #love

08 September, 2021

On that day | Poetry | Dr (Miss) Sharad Singh

On that day
- Dr (Miss) Sharad Singh

I am living 
the dream of life.  
One day 
the sleep will be broken, 
the dream will be broken
and that will be 
my real morning.  
Then there will be 
no loneliness 
and there will be 
no need 
for the heart to beat.  
On that day 
the sun will shine 
over my closed eyes 
and my soul 
will be bathed in light.  
On that day 
I will reach my loved ones.
______________
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07 September, 2021

The Cruelty | Poetry | Dr (Miss) Sharad Singh

The Cruelty
- Dr (Miss) Sharad Singh

Green leaves wither
Colorful flowers dry up
The fire goes out
Water flows,
Whom
We love so much
They die too.

Why do all these 
never come back, 
Like the sun 
the moon, the stars
Those who set 
and come back

Death makes invisible 
all those 
whom we have seen 
over the years 
laughing, talking, walking, running and throbbing

Between happiness 
and sadness,
It is a terrible duel
Why is death so cruel?
______________
#life  #poetry #poetrylovers  #invisible #death #love #duel #cruel

06 September, 2021

These days | Poetry | Dr (Miss) Sharad Singh

These days 
- Dr (Miss) Sharad Singh

These days 
I am living a nightmare 
A nightmare 
that never came 
to my sleep,
Breathing is not easy 
Every breath is creep

Haven't believe in life 
Not even on death  
The question of trusting 
a person 
does not arise at all,
Everything has stopped 
Against an invisible wall.
            ----------------

निर्लज्जता | कविता | डॉ शरद सिंह

निर्लज्जता
       - डॉ शरद सिंह

वह बच्चा
जो बीन रहा है
हर बिकाऊ वस्तु
कचरे के ढेर से
उसे नहीं डर 
न कोविड का
न किसी और संक्रमण का
वह तो
पैदायशी ग्रस्त है
ग़रीबी के वायरस से

वह बच्चा
देखता है सपने
स्कूल का नहीं,
पढ़ाई का नहीं
बस, अपने मोहल्ले का
'दादा' बनने का
ताकि
जिस दूकान से उसे
नहीं मिलती उधार में रोटी
उस दूकान से
वसूल सके 'हफ़्ता'
और ठंडे लोहे की
एक पिस्टल
खुंसी रहे 
उसकी पेंट में पिछवाड़े

वह बच्चा
जो बचा नहीं पाया
अपनी बहन को
बिकने से,
जो छुड़ा नहीं पाया
बाप की दारू,
जो मलहम नहीं लगा पाया
मां के ज़ख़्मों पर,
जो रोज हारता है
अपनी भूख-प्यास से

उस बच्चे से
उम्मीद करना आदर्श की
हमारी निर्लज्जता नहीं
तो और क्या है?
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04 September, 2021

त्वचा का आवरण | कविता | डॉ शरद सिंह

त्वचा का आवरण
          - डॉ शरद सिंह

त्वचा के आवरण के भीतर
अस्थि-मज्जा
रचता है
एक ऐसा जटिल संसार
जिसमें 
भावनाओं की सरिता
होती है प्रवाहित
हृदय-उद्गम से
नस-नाड़ियों तक

श्वेत अस्थियां
देती हैं प्रमाण
त्वचा के भीतर  
हर मनुष्य के
एक जैसे होने का
साथ ही बताती हैं
दैहिक विकास के 
उस क्रम को
जिसमें 
नवजातीय तीन सौ अस्थियां
आयु बढ़ने पर
रह जाती हैं
मात्र दो सौ छः

अस्थियां आपस में जुड़ कर
संवारती हैं देह
और उसी संवरी देह से
देह पर, देह के लिए
देह करती है अत्याचार
बहाना बना कर
त्वचा के रंग का,
त्वचा की स्निग्धता का,
त्वचा के जेंडर का

त्वचा
कसमसाती है तब
जब उसके भीतर सुरक्षित
मस्तिष्क की काली करतूतें
लांघ जाती हैं सीमाएं,
मर्यादाएं, चेष्टाएं
त्वचा छोड़ देना चाहती है साथ 
पर विवश है 
कसे रहने के लिए 
तने रहने के लिए 
आवरण बने रहने के लिए 
मनुष्य को सहेजने के लिए
मनुष्यत्व की आशा में
झुर्रियां पड़ने तक
घिस कर पतली होने तक
ओज़ोन परत की तरह।
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01 September, 2021

उदास दिल को तसल्ली | ग़ज़ल | डॉ शरद सिंह

उदास दिल को तसल्ली न दे सकोगे तुम
यूं  उम्र  भर   तो  मिरे पास न रुकोगे तुम

सलीब ग़म का रखा है मिरे जो कांधे पर
चलोगे  चार क़दम और फिर थकोगे तुम

उठा के सिर को कभीभी नहीं जिया तुमने
हरेक शख़्स के  आगे  में  जा झुकोगे तुम
- डॉ शरद सिंह

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