31 March, 2022

नींद का फूल | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | कविता


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27 March, 2022

मेरी तन्हाई | ग़ज़ल | डॉ शरद सिंह | नवभारत

"नवभारत" के रविवारीय परिशिष्ट में आज 27.03.2022 को "मेरी तन्हाई" शीर्षक ग़ज़ल प्रकाशित हुई है। आप भी पढ़िए...
हार्दिक धन्यवाद #नवभारत 🙏
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ग़ज़ल
मेरी तन्हाई
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

मेरी तन्हाई भी मुझसे मिलने से घबराती है।
यादों के सैलाब में अक्सर धड़कन डूबी जाती है।

कहने को दुनिया पूरी है लेकिन कोई नहीं सगा
बेगानों के बीच खुशी भी आने से कतराती है।

तेल ज़रा सा है दीपक में, फिर भी देखो तो हिम्मत
नीम अंधेरे में एक नन्हीं बाती जलती जाती है।

ऊपर वाले को हम कोसें या फिर कोसें क़िस्मत को
एक नदी जब चट्टानों से रह-रहकर टकराती है।

दिल पर पत्थर रखना मैंने, सीख लिया है दुनिया से
होठों की तो छोड़ो अब तो आंखें भी मुस्काती हैं।

रंग बहुत है इंद्रधनुष में, पर बेरंग हालात हुए
कोई भी तस्वीर आंख को अब तो नहीं लुभाती है।

किसके ख़ातिर जीना है अब, किसके ख़ातिर मरना है
एक यही तो बात समझ में, मुझे नहीं अब आती है।

'शरद' सुहाना मौसम बीता, जीवन में पतझार हुआ
अब तो वर्षा आंसू बनकर, आंखों में आ पाती है ।
        
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21 March, 2022

विश्व कविता दिवस | कविता | डॉ (सुश्री) शरद सिंह


#विश्व_कविता_दिवस  की हार्दिक शुभकामनाएं 🌷
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कविता
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

भावनाओं की तरंगों पर
सवार
शब्द-यात्री
है वह,
जिसके चरण पखारते हैं
विचार
और चित्त में बिठाते हैं
रस, छंद, लय, प्रवाह

जिसका अस्तित्व है
मां की लोरी से
मृत्युगान तक
जो है भरती
श्रम में उत्साह
जो दुखों को
कर देती है प्रवाहित
दोने में रखे
दीप के समान

वह है तो वेद हैं
वह है तो महाकाव्य हैं
उसके होने से
मुखर रहते हैं भारतीय चलचित्र,
वह रंगभेद के द्वंद्व में
गायन बन कर
श्रेष्ठता दिलाती है
अश्वेतों को,
वह वैश्विक है
क्योंकि
मानवता है वैश्विक
और वह है उद्घोष
मानवता की।

वह नाद है, निनाद है
प्रेम है, उच्छ्वास है
वह कविता ही तो है
जो प्रेमपत्रों से
युद्ध के मैदानों तक
चलती रही साथ।
जब लगता है खुरदरा गद्य
तब रखती है
शीतल संवेदनाओं का फ़ाहा
कविता ही,
कविता समग्र है
और समग्र कविता है।
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20 March, 2022

अंत नहीं शुरुआत नहीं | ग़ज़ल | डॉ शरद सिंह | नवभारत


 "नवभारत" के रविवारीय परिशिष्ट में आज 20.03.2022 को "अंत नहीं शुरुआत नहीं" शीर्षक ग़ज़ल प्रकाशित हुई है। आप भी पढ़िए...
हार्दिक धन्यवाद #नवभारत 🙏
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ग़ज़ल
अंत नहीं शुरुआत नहीं
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

कैसे लिख दें  राम-कहानी, लिखने वाली बात नहीं।
नभ-गंगा  हैं  भीगी  आंखें, पानी भरी परात  नहीं।

समय-डाकिया लाया अकसर, बंद लिफाफा क़िस्मत का
जिसमें से बाधाएं निकलीं, निकली पर  सौगात नहीं।

तलवों में  है  दग्ध-दुपहरी, माथे पर  झुलसी शामें,
जी लें जिसमें  पूरा जीवन,  नेहमयी  वह रात नहीं।

तेज हवा ने  तोड़ गिरा दी, लदी आम की डाल यहां
अपना आपा याद रख सके, इतनी भी अभिजात नहीं।

उमस रौंदती है  कमरे को, तनहाई  जिसमें  ठहरी
ऊंघ रही दीवारें  अब तक,  सपनों की बारात नहीं।

नुक्कड़ के कच्चे ढाबे में, उपजे प्यालों की खनखन
मुक्ति दिला दे जो विपदा से, ऐसा भी संधात नहीं।

अपना भावी, निरपराध ही,  दण्ड झेलता दिखता है
लिखने को अक्षर ढेरों हैं, क़लम नहीं, दावात नहीं।

शबर-गीत हैं शर-धनुषों में, कपट नहीं, छल-छद्म नहीं
भोले-भाले भील-हृदय में, चुटकी भर प्रतिघात नहीं।

टूटे  तारे  के  संग  ढेरों  सम्वेदन  जुड़  जाते हैं
बिना राह से फिसले लेकिन,  होता उल्कापात  नहीं।

शिविर समूहों में खोजा है,  खोजा है  अख़बारों में
मिले हज़ारों लेखन-जीवी,  मिला नहीं हमज़ात कोई।

खण्ड काव्य है, महाकाव्य है और न कोई गीत-ग़ज़ल
चूड़ी  जैसी  पीर  हमारी,  अंत नहीं, शुरुआत  नहीं।

गिर पड़ते हैं अर्ध्य सरीखे,  अंजुरी  जैसी  आंखों  से
‘शरद’ आंसुओं को पीने में,  इतनी भी  निष्णात नहीं।

(निष्णात = माहिर)

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06 March, 2022

ग़ज़ल | हम बस्ते में बंधे रह गए | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

 "नवभारत" के रविवारीय परिशिष्ट में आज 06.03.2022 को "हम बस्ते में बंधे रह गए" शीर्षक ग़ज़ल प्रकाशित हुई है। आप भी पढ़िए...
हार्दिक धन्यवाद #नवभारत 🙏
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ग़ज़ल
हम बस्ते में बंधे रह गए
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

वक़्त गया तो जाते-जाते, दिल पर छाला छोड़ गया।
ट्रक से टपके  तैल सरीखा,  धब्बा-काला छोड़ गया।

पगुराती गायों की गलियों से हो कर जो पल गुज़रा
अलसाए जीवन के  ऊपर, मकड़ी-जाला छोड़ गया।

गांव भागते शहर चुरा कर, चौर्यवृत्ति इस क़दर बढ़ी
अधुनातन होने का लालच, सद्गुण-माला छोड़ गया।

दो कानों  की  बात हमेशा, पड़ी मिली  चौराहे पर
जिसका भी दिल आया, उस पर, मिर्च-मसाला छोड़ गया।

प्लेटफाॅर्म के हरसिंगार ने, देखा है  उस इंजन को
बेफिक्री से बीड़ी पी जो, धुंआ - उछाला छोड़ गया।

घर से भागे असफल-प्रेमी, जैसा खोया-खोया मन
‘एक शहर की मौत’ ले गया, पर ‘मधुशाला’ छोड़ गया।

चांद रात को आया था जब, तारों की चुग़ली करने
कुर्सी के पुट्ठे पर अपना, फटा दुशाला छोड़ गया।

कलाकार निस्पृह होता है, यही सिद्ध करने, शायद
खजुराहो की रंगभूमि पर, एक शिवाला छोड़ गया।

दूर यात्रा पर जब निकला, सोच-विचारों का छौना
खोल गया  सारे दरवाज़े, चाबी-ताला  छोड़ गया।

बेहद  भूखा था  वह शायर, रोटी खाने  बैठा था
नई ग़ज़ल की आहट पा कर, हाथ निवाला छोड़ गया।

फिर लगता है, किसी अभागिन ने पीपल का वरण किया
सूरज अपने  पीछे-पीछे,  लाल उजाला छोड़ गया।

कच्ची स्लेटों पर अक्षर भी, कच्चे- कच्चे  उगते हैं
किन्तु मजूरी की खातिर वह अपनी शाला छोड़ गया।

आंधी का इक तीखा झोंका, रिश्ते  में ढल कर आया
निष्ठुरता से दीप बुझा कर,  सूना आला छोड़ गया।

अहसासों का पंछी आ कर, जब-जब कांधे पर बैठा
आंखों में आंसू का बहता, इक परनाला छोड़ गया।

हम बस्ते में बंधे रह गए ‘शरद’ फाइलों के जैसे
हमको दस्तावेज़ बना कर लिखने वाला छोड़ गया।

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05 March, 2022

नन्हा शेवचेन्को | कविता | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह


नन्हा शेवचेन्को
        - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

यह बात नहीं है
युक्रेनी कवि
तरास शेवचेन्को उर्फ़
कोबज़ार तरास की
जो जन्मा
प्रथम विश्व युद्ध के प्रारंभ में
और चला गया
द्वितीय विश्व युद्ध के उपरांत

उसने देखा था त्रासदी
दोनों विश्व युद्धों की
और कहा बस,
अब नहीं
और नहीं
और युद्ध नहीं चाहिए

आज एक शेवचेन्को
भर्ती है अस्पताल में
हो चुका अनाथ
शायद अपनी एक टांग भी
खो दे
यह नन्हा बालक
शेवचेन्को है,
तरास शेवचेन्को नहीं

जिसने
होश आते ही पुकारा था -
मां को
पिता को
दादी को
और पौधे को

हां, उसने लगाया था
एक पौधा
बाल्कनी के गमले में
और सोचा था
बड़ा हो जाएगा पौधा
रातोंरात

एक मिसाइल-रॉकेट से
खण्हर हो गया उसका घर
ध्वस्त हो गई बाल्कनी
गमले और पौधे का
पता ही नहीं
नन्हा शेवचेन्को
समझ जाए शायद
इस युद्ध के बाद
रातोंरात पेड़ बड़े नहीं होते
छिड़ जाते हैं युद्ध रातोंरात
और
सब कुछ तबाह हो जाता है
रातों-रात

नन्हा शेवचेन्को
अगर बचा रहा
तो समझ जाएगा सब कुछ।
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01 March, 2022

शिवत्व | कविता | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह

शिवत्व
     - डॉ शरद सिंह
तुमने 
जो गरल दिया मुझे
वह 
ठहरा हुआ है
मेरे गले में
तुम शिव थे
पर मैं नहीं
कभी नहीं चाहा मैंने
शिवत्व पाना
मैं तो ख़ुश थी
अपनी
छोटी-सी दुनिया में
तुमने
पहले
उजाड़ी मेरी दुनिया
और फिर
पिला दिया
चिरशोक का विष
उस पर
रोक दिया उसे
मेरी ग्रीवा में
दे दिया 
जीवन और मृत्यु के बीच
त्रिशंकु सा जीवन
क्या यही है तुम्हारा-
देवत्व
और शिवत्व?
चकित हूं शिव
तुम्हारे इस शिवत्व पर

गढ़ी जानी चाहिए
नई परिभाषा 
शिवत्व की
अब तो।
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