मालिक
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
अधिक नहीं तो दो मुट्ठी ही धूप मुझे दे देना, मालिक।
बदले में दो सांसे मेरी चाहे कम कर लेना, मालिक।
ढेरों खुशियां, ढेरों पीड़ा, होती है सह पाना मुश्क़िल
मन की कश्ती जर्जर ठहरी, धीरे-धीरे खेना, मालिक।
मैं तो हरदम प्रश्नचिन्ह के दरवाज़े बैठी रहती हूं
मुझे परीक्षा से डर कैसा, जब चाहे, ले लेना मालिक।
मोल-भाव पर उठती-गिरती, ये दुनिया बाज़ार सरीखी
साथ किसी दिन चल कर मेरे, चैन मुझे ले देना,मालिक।
बिना नेह के ‘शरद’ व्यर्थ है, दुनिया भर का सोना-चांदी
अच्छा लगता अपनेपन का सूखा चना-चबेना, मालिक।
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(मेरे ग़ज़ल संग्रह 'पतझड़ में भीग रही लड़की' से)
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