एकांत
- डॉ शरद सिंह
एकांत
जब बोलने लगे
झींगुर बन कर
एकांत
जब हंसने लगे
सूखे पत्तों की
खनखनाहट बन कर,
एकांत
जब गलबहियां डालने लगे
बंद कमरे की
दीवारें बन कर,
एकांत
जब हो जाए अपठनीय
दीमक खाई
क़िताबों की तरह,
एकांत
जब हो जाए
शापित प्रेम-कविता
की तरह,
एकांत
जब बनने लगे चेहरा
अपनी ही प्रतिच्छाया का
एकांत
जब उतरने लगे
देह में
और
पथराने लगे देह
चलती सांसोंं के बावज़ूद
यही समय होता है
भाग निकलने का
एकांत की ठंडी
कालकोठरी से
किसी भी दिशा में
किसी भी गली में
किसी भी सड़क पर
बस, एकांत से परे
खुद से
खुद को
बचाने के लिए।
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