01 June, 2021

उसे पढ़ सकूं | कविता | डॉ शरद सिंह

उसे पढ़ सकूं
     - डॉ शरद सिंह
आसमान की ओर
सिर उठा कर
पढ़ती हूं मैं 
काले-सफ़ेद बादलों की आकृतियां
जैसे
कोई नज़ूमी
कॉफी-कप के तलछठ में
पढ़ती है 
क़िस्मत की आकृतियां

दूसरे का सुख-दुख बांचने वाली नज़ूमी
कभी नहीं बांच पाती है
अपनी क़िस्मत
कभी नहीं जी पाती है
मनचाहा सुख
ठीक वैसे ही
जैसे
चौराहे पर 
तोता लिए बैठने वाला ज्योतिषी
लाचार है इन दिनों
लॉकडाउन में बंद है धंधा
भाग्य है मंदा
पिंजरे से निकल कमरे में
फुदकता है परकटा तोता
सोचता है, काश! उड़ पाया होता

नज़ूमी, ज्योतिषी
तोता और मैं
नहीं पढ़ सकते
अपनी क़िस्मत को
क़िस्मत जो खाती जा रही है जंग
ज़्यादा छूने से उसे
ख़तरा है टिटनेस का
फिर भी चाहती हूं छूना
ताकि उसे पढ़ सकूं
भविष्य जान लेने के लिए।
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