फिर भी पधारो गणपति !
- डॉ शरद सिंह
हे एकदंत पधारो
इस कराहते घर में
जो जूझ रहा है
अपनों को खो कर
अपने एकाकीपन से
हे गजानन पधारो
इस रुदन करते आंगन में
जो लौट कर नहीं आ सका
यहां से चिकित्सालय जाने वाला
हे गजकर्ण पधारो
मेरी उस अनंतर्ध्वनि में
जिसमें आज भी प्रश्न
गूंजता है कि
क्यों नहीं सुनी थी
तुमने मेरी पुकार
मेरी चीत्कार
हे भालचंद्र पधारो
मेरे जीवन के
उस गहन अंधकार में
जिसमें तुम
उजाला नहीं भर सके
और न कभी भर सकोगे
हे बुद्धिनाथ पधारो
जिन्हें बुद्धि दिया तुमने
वायरस बनाने
और फैलाने का
सारी दुनिया को
रुलाने का,
उनकी बुद्धि का
परिणाम देखो
हो गए अनाथों पर
और लगाओ अट्टहास
भले ही तुमने
नहीं सुना था मेरी पुकार
छीन लिया मुझसे
मेरा सुख-संसार
तुम हो मेरे शत्रुसम
फिर भी पधारो गणपति !
मैं तुम्हें बुलाती रहूंगी
याद दिलाती रहूंगी
कि तुमने ठुकरा दिया था
प्राण-भिक्षा की मेरी
प्रार्थना को,
हां, नहीं सुना था तुमने
फिर भी पधारो गणपति !
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जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(११-०९-२०२१) को
'मेघ के स्पर्धा'(चर्चा अंक-४१८४) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
शिकवों के साथ आव्हान । अच्छी अभिव्यक्ति आदरणीय । बहुत शुभकामनायें ।
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