एकांत
- डॉ शरद सिंह
एकांत
जब बोलने लगे
झींगुर बन कर
एकांत
जब हंसने लगे
सूखे पत्तों की
खनखनाहट बन कर,
एकांत
जब गलबहियां डालने लगे
बंद कमरे की
दीवारें बन कर,
एकांत
जब हो जाए अपठनीय
दीमक खाई
क़िताबों की तरह,
एकांत
जब हो जाए
शापित प्रेम-कविता
की तरह,
एकांत
जब बनने लगे चेहरा
अपनी ही प्रतिच्छाया का
एकांत
जब उतरने लगे
देह में
और
पथराने लगे देह
चलती सांसोंं के बावज़ूद
यही समय होता है
भाग निकलने का
एकांत की ठंडी
कालकोठरी से
किसी भी दिशा में
किसी भी गली में
किसी भी सड़क पर
बस, एकांत से परे
खुद से
खुद को
बचाने के लिए।
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आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 27 अगस्त 2021 शाम 3.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
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ReplyDeleteयही समय होता है
भाग निकलने का
एकांत की ठंडी
कालकोठरी से
किसी भी दिशा में
किसी भी गली में
किसी भी सड़क पर
बस, एकांत से परे
खुद से
खुद को
बचाने के लिए।...प्रेरक,संदेश देती कविता ।