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27 August, 2021

एकांत | कविता | डॉ शरद सिंह

एकांत
     - डॉ शरद सिंह

एकांत
जब बोलने लगे
झींगुर बन कर
एकांत 
जब हंसने लगे
सूखे पत्तों की
खनखनाहट बन कर,
एकांत
जब गलबहियां डालने लगे
बंद कमरे की
दीवारें बन कर,
एकांत
जब हो जाए अपठनीय
दीमक खाई 
क़िताबों की तरह,
एकांत 
जब हो जाए
शापित प्रेम-कविता
की तरह,
एकांत 
जब बनने लगे चेहरा
अपनी ही प्रतिच्छाया का
एकांत 
जब उतरने लगे
देह में
और  
पथराने लगे देह
चलती सांसोंं के बावज़ूद

यही समय होता है
भाग निकलने का 
एकांत की ठंडी
कालकोठरी से
किसी भी दिशा में
किसी भी गली में
किसी भी सड़क पर
बस, एकांत से परे
खुद से
खुद को
बचाने के लिए।
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23 August, 2021

ग्रैफिटी | कविता | डॉ शरद सिंह

ग्रैफिटी
      - डॉ शरद सिंह

पुरानी
प्लस्तर उधड़ी दीवारों पर
करना चाहती हूं मैं
ग्रैफिटी

स्प्रे करना 
उन रंगों को
जो बहुत गहरे
दबे हैं मेरे मन में,
अच्छा लगेगा मुझे
बना देना
एक बड़ा-सा दिल
हथियारों के ठीक ऊपर

एक कबूतर
एक कलम
एक काग़ज़
एक कविता
एक सुखी इंसान
- इनमें से कुछ भी 
या
ये सभी
एक ही दीवार पर
उकेरना है मुझे

बेशक़,
ग्रैफिटी 
ज़िन्दा कर देती है
मरी हुई दीवारों को
मरी हुई भावनाओं को
मरी हुई बहादुरी को
यदि हम ख़ुद को 
जोड़ पाएं
रंगों और दीवारों से
बेझिझक
जैसे 
मृत्यु की ज़मीन पर
जीवन को जी लेना
जी भर कर।
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21 August, 2021

वह एकाकी तारा | कविता | डॉ शरद सिंह

वह एकाकी तारा
     - डॉ शरद सिंह

वह दूर आकाश में
एकाकी तारा
घूम रहा है
अपनी धुरी में
उल्लकाएं भी
उससे बच कर निकलती हैं
दूर-दूर से,
न कोई टकराना चाहता
न कोई अपनाना चाहता
देखें कब तक
दिपदिप करेगा 
वह एकाकी तारा

जिस दिन टूटेगा वह
कई अनजाने लोग
मांगेंगे 'विश'
क्या सचमुच-
किसी का टूटना
ख़त्म होना
इच्छाएं पूरी कर सकता है 
किसी की?

इस प्रश्न का उत्तर पाने
टूटना होगा
उस एकाकी तारे को,
जो फ़िलहाल 
चाहता है जानना
विस्तृत आकाशगंगा में
असंख्य 
अपरिचित 
तारों के बीच
अपने होने का उद्देश्य
और अकुलाकर
ढूंढता है अपना 'ब्लैक होल'
क्योंकि उसने सुन रखा है
जो तारा टूटता नहीं
उसका होता है अंत
'ब्लैक होल' में
जो होती है 
एक अनन्त यात्रा की
शुरुआत
आकाशगंगा से परे
मृत्यु के समकक्ष

अब डरता नहीं
वह एकाकी तारा
न टूटने से
न मृत्यु से।
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16 August, 2021

दस्तक | कविता | डॉ शरद सिंह

दस्तक
        - डॉ शरद सिंह

उसने
दरवाज़े के माथे को
अपनी हथेली की
थाप से चूमा
और 
एक दस्तक रख दिया

काश!
उसने द्वार खुलने तक
की होती प्रतीक्षा
तो व्यर्थ न जाती
दस्तक,
कब्ज़ों और सिटकनी की
सिहरन

और 
निराश न होतीं
वे सारी आशाएं 
जो बंद द्वार के भीतर
बाट जोह रही थीं
एक अदद
दस्तक की

द्वार खुलने पर
उसका न होना
छोड़ गया अंधेरा
भरी दोपहर,
भरपूर उजाले में

शायद उसे पता नहीं
दस्तक का
अपना कोई 
वज़ूद नहीं होता,
होता है वजूद तो
उस हथेली का
जो
जुड़ी होती हैं
कांपती उंगलियों,
चंद सांसों, 
एक धड़कते दिल
और 
प्रेम के ढाई आखर से।
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14 August, 2021

चलो खेलें | कविता | डॉ शरद सिंह

चलो, खेलें !
        - डॉ शरद सिंह

चलो, 
जाति-जाति खेलें
चलो,
धर्म-धर्म खेलें
राजनीतिक गलियारों से
निकल कर
ये खेल
बनते जा रहे हैं 
बुनियादी खेल
सो,
अपडेट तो रहना होगा
खेल भी खेलना होगा
आख़िरकार,
ओलंपिक में भी
शामिल कर दिया 
हमने यह खेल
फिर चलो, खेलें

इससे भी न भरे जी
तो खेल सकते हैं
खेल ऑनर किलिंग का

हर उन्मादी खेल 
बढ़ा सकता है
टीआरपी सुर्खियों का
और गिरा सकता है
जीवनमूल्य
चुटकियों में।
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13 August, 2021

मन का प्लेनेटेरियम | कविता | डॉ शरद सिंह

मन का प्लेनेटेरियम
           - डॉ शरद सिंह

घने, काले बादलों से
आच्छादित आकाश
खो देता है नीलापन
तब कहां बिसात
सूरज, चांद, तारों की
कि दिखा सकें
अपना चेहरा

मगर 
मन के
प्लेनेटेरियम में
दिनदहाड़े
चमकते, धधकते
लुभाते, बुलाते
मनचाहे ग्रह-नक्षत्र,
कभी-कभी 
आवारा उल्लकाएं भी
गुज़र जाती हैं
बिलकुल क़रीब से

वहां है
 दूरबीन
'हब्बल'  से भी 
अधिक शक्तिशाली
मन देख सकता है
हज़ारों आकाशगंगाओं के 
पार भी
कुछ भी

पर छू नहीं सकता
चाह कर भी
बेचारा
लाचार मन।
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07 August, 2021

तेरे जाने से ये दुनिया | ग़ज़ल | डॉ शरद सिंह

ग़ज़ल
     - डॉ शरद सिंह
तेरे जाने से ये दुनिया, वीरानी-सी लगती है
कैसे ज़िन्दा हूं मैं अब तक, हैरानी-सी लगती है 

बड़ा कठिन है वादा करना खुद से जीते जाने का
तुझसे फिर मिल पाने में ही, आसानी-सी लगती है

जिसपे गुज़री है वो रो कर, अपना दिल हल्का करता 
दुनियावालों को तो ये भी नादानी-सी लगती है

उसका होना ही था काफ़ी, दुनिया अपनी लगती थी
अब तो हर महफ़िल, हर मज़लिस बेगानी-सी लगती है

उसके क़दमों में था रखना, ख़ुशियों का हर नज़राना
"शरद" ज़िंदगी की हर ख़्वाहिश, बेमानी-सी लगती है
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06 August, 2021

नॉस्टैल्जिक बारिश | कविता | डॉ शरद सिंह

नॉस्टैल्जिक बारिश
           - डॉ शरद सिंह

लगातार
एक सप्ताह तक
चलने वाली बारिश
हो जाती है नॉस्टैल्जिक
करने लगती है उदास
तिरने लगते हैं
अवसाद के बादल
बैठक से शयनकक्ष तक

सीलते हुए शब्द
एक गीलापन
रख देते हैं कानों में
खारे आंसुओं की तरह
और भीग जाता है
पूरा घर
मन के भीतर का

सीलन की गंध
उठने लगती है 
उम्मींद के
हर कोने से
काम नहीं आता
तसल्ली का
एयर प्यूरीफायर

कंचे बना कर 
खेलने को
दिल करता है
शुद्ध, सफ़ेद
फिनायल गोलियां
बचपन के उस
काल्पनिक साथी के साथ
जो घनी बारिश में
दिखता है अकसर
भीगे लिबास में
लापरवाह-सा

मैं भी हो जाऊं अवसादी
इससे पहले 
या तो सीख लूं
लापरवाह होना
या फिर 
थम जाए बारिश
मेरी हथेलियों की
तमाम लकीरें धुलने से पहले।
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05 August, 2021

फॉसिल | कविता | डॉ शरद सिंह

फॉसिल
       - डॉ शरद सिंह

सावन, भादों
क्वांर, कार्तिक
वसंत, पतझड़
सारे महीने
सारे मौसम
मेरे भीतर रह कर
देते रहते हैं दस्तक
बाहर आ कर
चेहरे से फूट पड़ने को
बारहमासी बन कर

परन्तु 
लग गया है जंग
मन के दरवाज़े के
कब्जों में
पथरा गई हैं
पल्लों की लकड़ियां
उन पर पड़ने वाली थाप
अब नहीं होती
ध्वनित, प्रतिध्वनित

हर मौसम
बनता जा रहा
फॉसिल
दुख की चट्टानों में दब कर
सीने की तलहटी
बहती आंसुओं की नदी में
डूबता-उतराता
हर पल है
हज़ार-हज़ार साल जैसा।
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03 August, 2021

वह एक स्त्री | कविता | डॉ शरद सिंह

वह एक स्त्री
        - डॉ शरद सिंह

रजोनिवृत्ति पर 
लिखी गई कविता
एक कवि के लिए
हो सकती है
क्रांतिकारी कविता,
स्त्रियों के प्रति
उदारता की कविता,
समस्त स्त्रियों के लिए
स्वातंत्र्य-उद् घोष की कविता
किन्तु उसकी
अपनी पत्नी के लिए नहीं

क्या याद है उस कवि को
कि उसने
कितनी बार खरीदा था
सेनेटरी नैपकिन
अपनी रजस्वला पत्नी के लिए
कि उसने कितनी बार
डिस्पोज़ किया था
पत्नी का इस्तेमालशुदा
सेनेटरी नैपकिन
कि उसने कितनी बार
सेंका था पत्नी की नाभि से
निचले हिस्से को
कि उसने
कितनी बार पिलाया था
दूध-हल्दी 
उन पांच दिनों में

निःसंदेह,
कुछ कवियों की
कविताओं में
होती हैं दुनियाभर की स्त्रियां
और उन स्त्रियों की पीड़ा
किन्तु
उनमें नहीं होती
वह एक स्त्री
जो है उसकी पत्नी

वही पत्नी
सम्हालती है, रिश्ते और बच्चे
वह जाता है जब
वाहवाही लूटने
सम्मान पाने
रजोनिवृत्ति पर लिखी
अपनी कविता के लिए

कवि की कविता में मौज़ूद
स्त्रियों-सी
क्या पत्नी भी एक स्त्री नहीं होती?
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02 August, 2021

बेचारे शब्द | कविता | डॉ शरद सिंह

बेचारे शब्द
              - डॉ शरद सिंह

बहुत से शब्द
होते हैं
लकीर के फ़कीर

कुछ चलते हैं 
लकीर के नीचे-नीचे 
तो कुछ चलते हैं 
लकीर के ऊपर चढ़कर 
गोया लकीर तय करती हो 
उनकी चाल को,
शब्द 
लकीर पर लटकते, फुदकते 
बनाए रखते हैं अपना संतुलन

कुछ शब्द 
बाएं से दाएं चलते हैं 
भारतीय ट्रैफिक नियमों की तरह 
तो कुछ दाएं से बाएं चलते हैं 
अमेरिकी ट्रैफिक नियमों की तरह
 
शब्द 
सीमाएं लांघ जाते हैं देशों की
बिना कुछ कहे सुने
कभी करा देते हैं युद्ध 
तो कभी समझौता 
तो कभी बन जाते हैं 
खुद ही शरणार्थी

शब्द
जोड़ भी सकते हैं
तोड़ भी सकते हैं

शब्द
प्रेम में घुलें तो अमृत
शब्द
बैर में घुलें तो विष

शब्द 
कभी कह देते हैं सब कुछ
तो कभी
छुपा लेते हैं बहुत कुछ

अफ़सोस कि
शब्द 
अक्षरों का समुच्चय हैं
उनका अपना कुछ भी नहीं
अक्षरों के बिना
वे कुछ भी नहीं।
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